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मिथ्यात्व के प्रकार और उनके भेद
R डा. मंजुला बम्ब अहितकर मिथ्यात्व ..
संसार-चक्र में फंसे रहने का कारण मिथ्यात्व है। पाप अठारह प्रकार के हैं। इनमें मिथ्यात्व का स्थान अंतिम है, परन्तु इस पाप की शक्ति महती है। मिथ्यात्व ही एक ऐसा पाप है जो समस्त पापों का पोषक और वर्द्धक है। इसी के फलस्वरूप जीव को अनादिकाल से जन्म-मरणादि समस्त दुःखों को सहन करना पड़ता है। इसके समान आत्मा का शत्रु और कोई नहीं है। सम्यक्त्व रूपी शूर के प्रकट होते ही अनन्त भव-भ्रमण में जोड़ने वाले मिथ्यात्व को या तो भूमिगत होना पड़ता है या नष्ट होना पडता है। मिथ्यात्व तिमिर के नष्ट होते ही आत्मा सम्यग्ज्ञान के प्रकाश में आ जाता है। उसे अपने शाश्वत घर का मार्ग स्पष्ट दिखाई देने लगता है। फिर वह अपनी शक्ति के अनुसार संसार अटवी को लांघकर अपने शाश्वत स्थान पर पहुंचने का प्रयत्न करता है। यदि मिथ्यात्व के झपाटे से सम्यक्त्व रूपी दीपक बुझ गया तो फिर मिथ्यात्व के खड्डे में गिरना होता है।
मिथ्यात्व का शाब्दिक अर्थ है-मिथ्या = विपरीत, त्व = भाव, यानी की विपरीत भाव। प्रश्न होता है कि मिथ्यात्वी कैसा होता है ?
दोससहियंपि देवं, जीवहिंसाइसंजुदं धम्मं ।
_ गंथासत्तं च गुरुं, जो मण्णदि सो हु कुट्ठिी ॥ अर्थात् जो जीव दोष सहित देव को देव, जीव-हिंसादि सहित को धर्म और परिग्रह में आसक्त को गुरु मानता है वह मिथ्यादृष्टि है।
यह आत्मा की अधस्तम अवस्था है। इसमें मोह की अत्यधिक प्रबलता होती है। विपरीत दृष्टि या श्रद्धा के कारण वह राग-द्वेष के वशीभूत होकर अनन्त आध्यात्मिक सुख से वंचित रहता है। मिथ्यात्वी-व्यक्ति आधिभौतिक उत्कर्ष चाहे कितना भी कर ले, किन्तु उसकी सारी प्रवृत्तियां संसाराभिमुखी होती हैं, मोक्षाभिमुखी नहीं। जैसे मदिरा पिये हुए व्यक्ति को हिताहित का ध्यान नहीं रहता वैसे ही मोह की मदिरा से उन्मत्त बने हुए मिथ्यात्वी को हिताहित का भान नहीं होता है। ___ कुदेव की देव मानकर पूजा करना उचित नहीं है, किन्तु प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या व्यन्तर आदि देव लक्ष्मी देते हैं ? उपकार करते हैं? उनकी पूजा वन्दना करें या नहीं? इसका उत्तर है
___ण य को वि देदि लच्छी, ण को वि जीवस्स कुणदि उवयारं ।
उवयारं अवयारं. कम्मपि सहासहंकणदि।। इस जीव को कोई व्यन्तरादि देव लक्ष्मी नहीं देते हैं । इस जीव का कोई अन्य उपकार भी नहीं करता है। जीव के पूर्व संचित शुभ-अशुभ कर्म ही उपकार तथा अपकार करते हैं।
कई लोग ऐसा मानते हैं कि व्यन्तर आदि देव हमको लक्ष्मी देते हैं, हमारा उपकार करते हैं, इसलिए हम उनकी पूजा वन्दना करते हैं। यदि ऐसा होता तो पूजने वाले दरिद्री और दुःखी क्यों रहते? पूजा करने वाले सभी को सुखी होना चाहिए था,
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