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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय विवेचन
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यह नियम नहीं है कि वह फिर कभी मिथ्यात्व में जा ही नहीं सकता। एक क्षायिक सम्यक्त्व के सिवाय, उपशम और क्षयोपशम सम्यक्त्व में पतन की संभावना रहती है। अर्थात् सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व में प्रवेश हो जाता है। दूसरी बार मिथ्यात्व की प्राप्ति ही उस मिथ्यात्व की आदि बतलाता है । यही भेद तीसरे प्रकार का है । इस भेद वाला प्राणी गफलत में आकर मिथ्यात्व में गिर पड़ता है, किन्तु उस मिथ्यात्व में वह अर्द्ध- पुद्गल - परावर्तन काल से अधिक नहीं रहता । सम्यक्त्व के पूर्व संस्कार उसे मिथ्यात्व से निकाल ही लेते हैं और वह पुनः सम्यक्त्व में आ जाता है । इस भेद वाले सभी प्राणी अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करते हैं । इस प्रकार उत्थान और पतन एक, दो या तीन बार ही नहीं लेकिन हजारों बार हो सकता है I
जिन भव्यात्माओं में सम्यक्त्व गुण बसा हुआ है और जिन्हें सम्यक्त्व से अत्यधिक प्रीति है तथा जो सम्यक्त्व को सुरक्षित रखना चाहते हैं उनका प्रथम कर्तव्य है कि वे मिथ्यात्व से अपने को बचाए रखें, उससे दूर ही रहें । मिथ्यात्व से बचने के भेदों को समझना आवश्यक है । अतएव यहां मिथ्यात्व के अधिकतम २५ भेदों का वर्णन किया जाता है 1
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मिथ्यात्व के २५ भेद
१. अभिग्रहिक मिथ्यात्व
तत्त्व की परीक्षा किए बिना ही अपने पकड़े हुए रूढ पक्ष से दृढ़तापूर्वक चिपके रहना और सत्य का विरोध करना आभिग्रहिक मिथ्यात्व है । अज्ञान के साथ आग्रह का योग हो, तब यह मिथ्यात्व होता है । इस मिथ्यात्व वाले व्यक्ति हठाग्रही बने रहकर अपने माने हुए और रूढि से चले आने वाले मार्ग पर ही चलते रहते हैं । अगर उन्हें कोई सत्य धर्म को समझाना चाहे तो वे कहते हैं 'हम अपने बाप-दादाओं का धर्म कैसे छोड़ सकते हैं?' वास्तव में देखा जाए तो वे बाप-दादाओं की धर्म-परम्परा से चिपके रहते हैं (ठाणंग, २.१), किन्तु संसार की दूसरी बातों से चिपके नहीं रहते ।
कुछ लोगों में तो अंध-परम्पराओं का इतना आग्रह होता है कि वे इन विषयों में, त्यागी संतों के उपदेश को भी नहीं मानते हुए यही कहते हैं कि 'महाराज ! ये क्रियाएं हमारे बाप-दादा और पूर्वज परम्परा से करते आए हैं, इसलिए हम भी करते हैं। वे मूर्ख नहीं थे, हमसे समझदार थे आदि-आदि ।
कुछ जैन लोगों में भी रूढ़िवश इस प्रकार का मिथ्यात्व चलता रहता है । कुल परम्परानुसार भैरू, भवानी, लक्ष्मीपूजन, होलिका पूजन - दहन आदि इसके उदाहरण हैं । चेचक, मोतीझरा आदि रोगों को देव रूप मानना, श्राद्ध पक्ष में पितरों का श्राद्ध करना, कन्यादान को धर्म मानना, इसी प्रकार विवाह के अवसर पर गणपति की स्थापना करना आदि क्रियाएं करना, ये सब अन्धपरम्परानुसार प्रचलित हैं । हम यह नहीं सोचते कि इस प्रकार की मिथ्या (विपरीत) क्रिया नहीं करने वालों के भी विवाहादि कार्य सुखपूर्वक सम्पन्न होते हैं । बिमारियों को देवरूप नहीं मानने वाले लोगों को भी ये रोग होते हैं और उनका निवारण हो जाता है तथा लक्ष्मी - पूजादि नहीं करने वालों के यहां भी भरपूर सम्पत्ति होती है, उदाहरणार्थ अमेरिका आदि देश बिना लक्ष्मी-पूजन के
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