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सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन प्रकार कहने वाले अधर्म का पोषण करते हैं। वे यह नहीं सोचते कि करंसी से निकला हुआ राजमान्य नोट ही गुणयुक्त है। उसके पूरे रुपये प्राप्त हो सकते हैं। किन्तु वैसी ही छापवाला नकली गुण-शून्य नोट 'जाली' कहलाता है और ऐसे जाली नोट चलाने वाला अपराधी होता है। वैसी ही छाप होते हुए भी गुण-शून्य नकली नोट नहीं चल सकता। उसी प्रकार गुण-शन्य साधु भी मात्र वेश के कारण नहीं पूजा जाता और वीतरागता तथा सर्वज्ञता से रहित रागी-द्वेषी छद्मस्थ को देव नहीं माना जाता। जिस प्रकार वेश होने मात्र से नाटक का नकली राजा और सिनेमा के नकली अवतार आदर के पात्र नहीं बन सकते, सोने का रंग चढ़ाया हुआ पीतल सोने का मूल्य नहीं पा सकता, उसी प्रकार दूषित तथा गुण-शून्य साधु या अन्य साधक भी पूजनीय नहीं होता और उसी प्रकार धर्म संज्ञा प्राप्त कर लेने पर भी अधर्म, धर्म नहीं बन सकता है। ___ अनाभिग्रहिक मिथ्यात्वीजन भगवतीसूत्र, शतक ३ उद्देशक २ में लिखित उस तामली तापस जैसे हैं, जो 'प्रणामा' नाम की प्रव्रज्या का पालक था और कुत्ता, कौआ आदि सबको प्रणाम करता था।
यहाँ सरलता कोमलता एवं नम्रता तो है, लेकिन हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का विवेक नहीं है। महात्मा और कसाई सबको समान कोटि में मानने की बुद्धि यहाँ स्पष्ट रूप से पायी जाती है। जैन धर्म इस प्रकार की दृष्टि को स्वीकार नहीं करता है। गुण दोष की सम्यक् परीक्षा करने की दृष्टि और हेयोपादेय का विवेक जैन धर्म ने स्वीकार किया है।
इस भौतिक युग में लाखों लोग अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व के चक्कर में फंस गए हैं। यह एक मोहक मिथ्यात्व है। साधारण जनता सरलता से इसके चक्कर में पड़ जाती है। यह मिथ्यात्व भव्य जीवों में निहित होता है। ३. आभिनिवेशिक मिथ्यात्व __अपने सिद्धान्त को गलत जानकर भी अभिमानवश हठाग्रही होकर उसे पकड़े रहना (भगवतीसूत्र, ९.३३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। इसे एकान्त मिथ्यात्व भी कहा गया है।
आभिनिवेशिक मिथ्यात्व की उत्पत्ति प्रायः सम्यग्दृष्टियों में ही होती है। जिस सम्यग्दृष्टि विद्वान् से भूल अथवा संशय से, या फिर औरों के प्रभाव से सिद्धान्त के विरुद्ध प्ररूपणा हो जाती है, वह फिर अभिमानवश छूटती नहीं। फिर वह किसी भी प्रकार से उसे सच्ची सिद्ध करने की ही चेष्टा करता है।
अहंकार इस मिथ्यात्व का मूल है। प्रतिष्ठित और बहुजनमान्य व्यक्तियों में भूल सुधारकर सत्य अपनाने वाले विरले ही होते हैं। अधिकांशतः अपनी और अपने पक्ष की असत्यता का अनुभव करते हुए भी केवल अहंकार के कारण वे उस असत्य को पकड़े रखते हैं। अपनी विद्वत्ता, योग्यता, प्रतिष्ठा तथा सम्बंध का उपयोग करके सत्य पक्ष को दबाने और नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। वे सोचते हैं कि यदि मैं अब अपनी भूल स्वीकार कर लूंगा, तो लोगों में मेरी प्रतिष्ठा घट जाएगी, और सामने वाले
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