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जिनवाणी-विशेषाङ्क राज्याधिकारी की आज्ञा पालन करते हैं, उसी प्रकार उपासक को भी उपास्य की आज्ञा का पालन करना ही श्रेयस्कर है । वैद्य, डाक्टर, सेनापति और अध्यापक आदि तो भूल भी कर सकते हैं और राग-द्वेष के वशीभूत होकर चाहकर भी अहित कर सकते हैं, परन्तु सर्वज्ञ-सर्वदर्शी की आज्ञा तो एकान्त हितकारी होती है। आचार्य श्री हेमचन्द्र ने वीतरागस्तोत्र में यहां तक कह दिया है
"वीतराग ! सपर्यायास्तवाज्ञापालनं परम्।
___ आज्ञाराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ।।" अर्थात् हे वीतराग प्रभु ! आपकी पूजा से भी श्रेष्ठ है आपकी आज्ञा का पालन करना। आपकी आज्ञा के पालन का फल है मोक्ष-प्राप्ति और इसकी विराधना का फल है भवभ्रमण, संसार-चक्र में भटकना ।
अहिंसा धर्म परम हितकारी और सदा आचरणीय है। इसे मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से, कुगुरुओं के उपदेश से, भ्रम में पड़कर अधर्म कहना,जीवों की रक्षा करने में, दया पालने में, मरते हुए जीवों को बचाने में अठारह पाप बतलाना, खोटे हेतु-दृष्टान्त देना आदि सबको मिथ्यात्व समझना चाहिए ।इस प्रकार चर्म के वास्तविक रूप को दबाकर अन्यथा प्ररूपणा करना धर्म को अधर्म बतलाना रूप मिथ्यात्व है। १३. अधर्म को धर्म मानना मिथ्यात्व
धर्म के लक्षण से जो विपरीत है, वह अधर्म है। उसे धर्म समझना मिथ्यात्व है। अर्थात् जिससे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की हिंसा हो, ऐसे पूजा, यज्ञ, होम आदि में धर्म मानना मिथ्यात्व है। जिस प्रवृत्ति से आत्मा की पराधीनता बढ़ती है, आत्मा बन्धनों में विशेष बंधती है ऐसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग में धर्म समझना मिथ्यात्व है; अथवा संवर-निर्जरा-रहित लौकिक-क्रिया में धर्म मानना मिथ्यात्व है।
कई लोग गरीब पशु-पक्षियों की बलि चढ़ाकर धर्म मानते हैं, तो कई यज्ञादि में ही धर्म की कल्पना करते हैं। कई कन्यादान एवं ऋतुदान करने में ही धर्म की आराधना मानते हैं। नदियों में स्नान करने से और स्थावर तीर्थों की यात्रा से धर्म की प्राप्ति होना मानने वाले भी संसार में करोड़ों हैं।
वृक्षपूजा, मूर्तिपूजा, व्यन्तरादि देवों की स्तुति आदि अनेक प्रकार के अधर्म संसार में धर्म के नाम पर चल रहे हैं। इस प्रकार संसार में अधर्म को धर्म मानने वालों की जिधर देखो उधर बहुलता दिखाई देती है। यह अधर्म संसार में भटकाने वाला है,
अज्ञान को बढ़ाने वाला है। अधर्म को सुखदायक-धर्म मानना भयानक भूल है । उसे त्यागना सर्वप्रथम आवश्यक है।
अधर्म रूपी विष को धर्म रूपी अमृत मानकर जीव, अनन्त जन्ममरणादि की दुःख परम्परा में उलझता रहता है।
सुश्रावक कुण्डकौलिक के सम्मुख एक गोशालकमति देव उपस्थित हुआ और अपना मत प्रकट करता हुआ पुरुषार्थ का खण्डन और नियतिवाद का मण्डन करने लगा, किन्तु उस देव को मनुष्य से पराजित होना पड़ा। विद्वान् विचक्षण एवं निर्भीक दृढ़ श्रावक कुण्डकौलिक ने देव की बात नहीं मानी और अकाट्य युक्तियों से
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