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जिनवाणी-विशेषाङ्क को जाणइ परे लोए, अस्थि वा नत्थि बा पुणो? ॥ ‘परलोक तो मैंने देखा नहीं, यह आनन्द तो आंखों के सामने हैं। ये काम-भोग हाथ में आए हुए हैं। भविष्य में होने वाले सुख संदिग्ध हैं। कौन जानता है परलोक है या नहीं? मैं सामायिक, पौषध, उपवास आदि कर रहा हूं, उसका फल मिलेगा या नहीं।' इस प्रकार उसका मानस संशयग्रस्त रहता है और वह केवल वर्तमान जीवन के प्रति ही विश्वस्त होता है। वह लक्ष्य बनाता है eat drink and be marry. ऐसी स्थिति में सम्यक् दर्शन का विकास नहीं हो सकता। दर्शन के अभाव में निर्माण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जैसा कि दर्शन पाहुड में कहा है
दसणभट्टो भट्टो, दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं ।
सिझंति चरियभट्टा, दंसणभट्टा ण सिझंति ॥ दर्शनभ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है, दर्शनभ्रष्ट को निर्वाण नहीं होता। चारित्र भ्रष्ट व्यक्ति का मोक्ष हो सकता है, किन्तु दर्शन भ्रष्ट के लिए वह असंभव है।
गौतम ने महावीर से पूछा-भंते ! दर्शन सम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त करता है ।
भगवान् ने कहा-दर्शन सम्पन्नता से विपरीत दर्शन का अंत होता है। दर्शन-सम्पन्न व्यक्ति यथार्थद्रष्टा बन जाता है। सम्यग्दर्शन का आध्यात्मिक फल है कि वह अनुत्तरज्ञान आदि में आत्मा को भावित किए रहता है। उसका व्यावहारिक फल है कि सम्यग्दर्शन वाला व्यक्ति देवगति के सिवाय अन्य किसी भी गति का आयुष्य बंध नहीं करता। रत्नकरण्डश्रावकाचार में भी सम्यग्दर्शन के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ।। सम्यग्दर्शन की सम्पदा जिसे मिली है, वह चाण्डाल भी देव है। तीर्थंकरों ने उसे देव माना है। राख से ढकी हुई आग का तेज तिमिर नहीं बनता, वह ज्योतिपुंज ही रहता है।
-जैन विश्व भारती, लाडनूं
शम प्रशमो विषयेषूच्चैर्भाव क्रोधादिकेषु च।
लोकासंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः || पाँच इन्द्रियों के विषयों में मन की शिथिलता और तीव्र क्रोधादिक भावों में स्वभाव से मन का शिथिल होना प्रशम भाव है।
सद्यः कृतापराधेषु यद्वा जीवेषु जातुचित् ।
तद्वधादिविकाराय न बुद्धिः प्रशमो मतः ।। अभी-अभी अपराध करने वाले जीवों के प्रति कभी भी वधादि विकार की बद्धि न होना प्रशम भाव है ।
-आचार्य श्री घासीलालजी म.सा.
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