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जिनवाणी-विशेषाङ्क अर्थात् जीव अजीव आदि सभी तत्त्वों का यथार्थ-परिपूर्ण श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है। इसमें न्यूनाधिकता को किञ्चित् भी स्थान नहीं है। यदि जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य-पाप, आश्रव, संवर और निर्जरा इन आठ तत्त्वों पर विश्वास कर लें, परन्तु एक मात्र मोक्ष तत्त्व पर विश्वास नहीं किया तो वह सम्यक्त्वी की कोटि में नहीं आ सकता।
देव, गुरु व धर्म पर अनुराग रखते हुए तथा श्रावक एवं साधु के व्रतों का निर्दोष रीति से पालन करते हुए भी यदि एक मोक्ष तत्त्व पर यथार्थ एवं परिपूर्ण श्रद्धा नहीं हुई तो उसे मिथ्यादृष्टि ही माना जावेगा, क्योंकि बिना मोक्ष तत्त्व को माने न तो जीव तत्त्व का, न संवर-निर्जरा तत्त्व का और न ही साधना के सही लक्ष्य का ज्ञान हो सकेगा, अतः सभी तत्त्वों पर परिपूर्ण श्रद्धान सम्यक्त्व प्रगट करा सकता है।
सम्यक्त्व की प्राप्ति में जिन सात प्रकृतियों का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम होता है उनके बारे में जानकारी होना आवश्यक है। इन सात प्रकृतियों को दर्शन-सप्तक कहा जाता है ।
१. अनन्तानुबन्धी क्रोध-अनन्त संसार का बन्ध कराने वाला क्रोध का परिणाम अनन्तानुबन्धी क्रोध है । जब तक संसार के भोग-पदार्थों में हमारी प्रीति रहती है तब तक आत्मस्वरूप के प्रति अप्रीति का भाव रहता है। क्योंकि अनन्तानुबन्धी क्रोध का भाव आत्म-स्वरूप की प्रीति को समाप्त कर सांसारिक भोग-पदार्थों में प्रीति करा देता है, जिसके फलस्वरूप मिथ्यात्व की गांठ टूटती ही नहीं है। अनन्तानुबन्धी क्रोध से तात्पर्य तीव्र क्रोध करना, क्रोधादि कषायों में जलते रहना ही नहीं है, क्योंकि तीव्र कषाय के सद्भाव में भी सम्यग्दर्शन हो सकता है, ऐसा दशाश्रुतस्कन्ध में उल्लेख मिलता है। सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व को साथ लेकर छट्ठी नारकी तक जा सकते हैं और सातवी नरक में तीव्र एवं अशुभ कृष्ण लेश्या वाली नरक में भी सम्यक्त्व पायी जाती
___ दूसरी तरफ मन्द कषाय वालों में भी मिथ्यादृष्टि हो सकती है। पांचवें स्वर्ग के किल्विषी देव पतली कषायों वाले और शुक्ल लेश्या वाले होते हैं फिर भी मिथ्यादृष्टि होते हैं। उनसे भी बढ़कर ऊपर की ग्रैवेयक के देव अधिक मन्द कषायी और विशुद्ध शुक्ल लेश्या वाले होते हुए भी मिथ्यादृष्टि हो सकते हैं। निरयावलिका सूत्र में उल्लेख मिलता है कि महाराजा चेटक को संग्राम में अपने प्रतिपक्षी कालकुमार आदि पर तीव्र क्रोध आया, उन्होंने कालकुमार को बाण मारकर मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने अपराधी पर यह क्रोध अन्याय का प्रतीकार करने के लिये किया। तथापि महाराजा चेटक को उस समय सम्यक्त्वी एवं श्रावक माना गया है। अतः मात्र क्रोधादि की तीव्रता के आधार पर उसे अनन्तानुबन्धी कहना उचित नहीं लगता है।
जो कषाय सम्यक्त्व गण का घात करे अथवा सम्यग्दर्शन से वंचित रखे वह अनन्तानुबन्धी कषाय होती है, वह तीव्र भी हो सकती है और मन्द भी।
२. अनन्तानुबन्धी मान-ऐसा अहं-भाव जो सम्यक्त्व का घात करे एवं मिथ्यात्व
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