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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन
कर्मबंध से निवृत्ति ही नहीं हो रही है ।
भ्रान्ति
इसलिए श्रीमद्जी ने आत्म भ्रांति या भूल के निवारण पर जोर दिया। इसके लिए आवश्यक है कि जीव अपने दोषों एवं भूलों का ध्यान करके, उनका निवारण करे तथा दूसरे जीवों के प्रति निर्दोष दृष्टि रखकर प्रवृत्ति करे । ज्यों-ज्यों जीव में वैराग्य, त्याग, और आश्रयभक्ति का बल बढ़ता है त्यों-त्यों सत् पुरुष के वचन का अपूर्व और अद्भुत स्वरूप भासित होता है और बंधन निवृत्ति के उपाय सहज ही सिद्ध होते हैं ।
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अनादि की भूल-निवृत्ति और सद्बोध की प्राप्ति हेतु आत्म-विचार प्रथम सीढ़ी है भूल कौनसी ? अनर्थ के हेतु कौन से ? क्या करना योग्य है ? इत्यादि विचार करते हुए सोचे- 'जन्म-मरणादि क्लेश युक्त इस संसार का त्याग करना योग्य है । अनित्य पदार्थ में विवेकी को रुचि करना नहीं होता, माता-पिता, स्वजनादि सबका स्वार्थरूप संबंध होने पर भी यह जीव उस जाल का आश्रय करता है, यही उसका अविवेक है। ( भूल है) । त्रिविध तापरूप यह संसार ज्ञात होने पर भी मूर्ख जीव उसी में विश्रांति चाहता है । परिग्रह, आरंभ और संग ये सब अनर्थ के हेतु हैं .... आत्मा का अस्तित्व, नित्यत्व, एकत्व अथवा अनेकत्व, बंधादिभाव, मोक्ष, आत्मा की सर्व प्रकार की अवस्था, पदार्थ और उनकी अवस्था का चिन्तन करे ।
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भेदविज्ञान
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जड़भाव जड़ परिणमे, चेतन चेतन भाव कोई कोई पलटे नहीं छोड़ी आप स्वभाव ।
जड़ चेतन नो भिन्न छे केवल प्रकट स्वभाव ।
एक पणू पामे नहीं, भणे काल द्वयभाव । - आत्मसिद्धि
“जीव और पुद्गल कदाचित् एक क्षेत्र को रोककर रहें तो भी अपने-अपने स्वरूप से किसी अन्य परिणाम को प्राप्त नहीं होते । देहादिक से जो परिणाम होते हैं, उनका कर्त्ता पुद्गल है, क्योंकि देहादिक जड़ है और जड़ परिणाम तो पुद्गल में होता है । फिर जीव भी जीव रूप में ही रहता है । इस प्रकार वस्तु स्थिति को समझें तो जड़ संबंधी का जो स्व-स्वरूपभाव है वह मिटे और स्वस्वरूपे जो तिरोभाव है वह प्रकट हो । १०
यही भेद विज्ञान है । यही ग्रन्थि भेद है । इसी को चौथा गुणस्थानक कहा गया है । जीव तत्त्वविचार कर यह निश्चय करे कि
“जीव यह पौद्गलिक पदार्थ नहीं है, पुद्गल नहीं है, पुद्गल का आधार नहीं है, अपने स्वस्वरूप के सिवाय जो अन्य है उसका स्वामी नहीं है, क्योंकि पर का ऐश्वर्य स्वरूप में नहीं होता । वस्तु धर्म से देखते हुए वह कभी भी परसंगी भी नहीं है।'
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आत्मसिद्धि में स्पष्ट उद्घोष किया है कि
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केवल होत असंग जो भासत तने न केम।
असंग छे परमार्थथी, पण निज माने तेम् ॥ आत्मसिद्धि ७६
होकर
सच्ची समझ हो जाय तो मुक्ति का मार्ग मिल जाए। जीव सर्व कर्मबंध से मुक्त कृतकृत्य हो जाए। कैसे ? वह यह जाने और दृढ़ता से माने, प्रतीति करे कि " द्रव्य से द्रव्य नहीं मिलता, इसे जानने वाले को कोई कर्त्तव्य नहीं कहा जा
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