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जिनवाणी-विशेषाङ्क और उसके मुख्य हेतुभूत जिनवचन से तत्त्वार्थ प्रतीति होती है। सद्गुरु की पहचान और अर्पणता
तत्त्वार्थ ज्ञान और उसकी प्रतीति में आलंबन है-सद् देव सद् गुरु और सद् धर्म। अर्थात् राग-द्वेष विरहित वीतराग देव, मिथ्यात्व और राग-द्वेष की स्थूल ग्रन्थि का छेदन करने वाले वीतराग गुरु और उनके द्वारा प्ररूपित दया (अहिंसा) मय, वीतराग धर्म। ___ आत्मा और सद्गुरु एक ही समझें। जिसने आत्मस्वरूप का लक्षण से, गुण से और वेदन से प्रगट अनुभव किया है और वही परिणाम जिसकी आत्मा का हुआ है वह आत्मा और सद्गुरु एक ही है।'
सद्गुरु (सत्पुरुष या महात्मा) को पहचानना अत्यन्त कठिन है। मुमुक्षु के नेत्र महात्मा को पहचानते हैं । इस जीव की भूल यह है कि इसने सद्गुरु को पहचानने का पुरुषार्थ नहीं किया। अनादि काल से परिभ्रमण में अनंत बार शास्त्र-श्रवण, विद्याभ्यास, जिन दीक्षा, आचार्यत्व प्राप्त हुआ पर 'सत्', मिला नहीं, सत् सुना नहीं, सत् की श्रद्धा की नहीं इसके मिलने, सुनने और श्रद्धा करने से ही छुटकारे की गूंज आत्मा में उठेगी।"
अतः पहला कार्य यह कि सद्गुरु की शोध करके तन, मन, वचन और आत्मा से अर्पण बुद्धि करे, उसी की आज्ञा का आराधन सर्वथा निश्शंकता से करे । कुसंग का त्याग कर सत्संग करे। जिसे सत् का साक्षात्कार है ऐसे पुरुष के वचनों का परिशीलन करे । सत् पुरुष वही है जो रात-दिन आत्मा के उपयोग में है। अंतरंग में स्पृहारहित जिसका गुप्त आचरण है।
'दूसरा कुछ मत खोज, मात्र एक सत्पुरुष की खोज कर, उसके चरणकमल में सर्वभाव अर्पण करके प्रवृत्ति करता रह, फिर यदि मोक्ष नहीं मिले तो मुझ से लेना।"
तन से, मन से, धन से, सब से गुरु देव की आन स्व आत्म बसे।
तब कारज सिद्ध बने अपनो रस अमृत पावहि प्रेम धनो॥-बीस दोहरे श्रीमद्जी ने कई पत्रों में सत्संग, सत्समागम एवं सत्पुरुष के वचनों के श्रवण-मनन-निदिध्यासन पर जोर दिया। सदगरु कहें या वीतराग गरु कहें, उनके वचन सुनने के बाद भी विवेक जागृत क्यों नहीं होता? इसके लिए जीव में मुमुक्षुता
और तीव्र मुमुक्षुता होनी चाहिए। मुमुक्षुता
सर्व प्रकार की मोहासक्ति से अकुलाकर एक मोक्ष के लिए ही यल करना मुमुक्षुता है और तीव्र मुमुक्षुता है अनन्य प्रेम से मोक्ष के मार्ग में प्रतिक्षण प्रवृत्ति करना। इसके लिए आवश्यक है कि जीव अपने दोष देखे, स्वच्छन्दता त्यागे। इतना होने पर भी मोक्षमार्ग की प्राप्ति में तीन कारणों को बाधक कहा है-(१) इस लोक की अल्प भी सुखेच्छा (२) परम दीनता की न्यूनता (३) पदार्थ का अनिर्णय।
तत्त्वों का, जीवाजीव का, आत्मतत्त्व का निर्णय जैसा तीर्थंकर परमात्मा ने फरमाया वैसा समझकर यथातथ्य निर्णय नहीं होने से ही जीव का परिश्रमण हो रहा है।
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