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भेदविज्ञान और सम्यग्दर्शन
___F डॉ. रमेशचन्द जैन जीव और पुद्गल का अपने स्वत्व को न छोड़ते हुए परस्पर अनुप्रवेश होकर रहना संसार है तथा इन्हीं दोनों का अलग होकर अपनी सत्ता में स्थिर रहना मोक्ष है । यथार्थ में जीव और पुद्गल भिन्न हैं, किन्तु संसार अवस्था में इन दोनों के एक साथ रहने का चक्र चलता रहता है। संसार में जो जीव स्थित है, उसके संसार के निमित्त से परिणाम होता है। परिणाम से कर्मबन्धन होता है। कर्मबन्धन से जीव एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करता रहता है। गतिभ्रमण में उसे देह की प्राप्ति होती है। देह से इन्द्रियों की प्राप्ति होती है। इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है । विषयों के ग्रहण से राग-द्वेष होता है। राग-द्वेष परिणाम से पुनः कर्मबन्धन होता है। इस प्रकार चक्र चलता रहता है। जो व्यक्ति इस चक्र से छूटना चाहते है, उन्हें इस बात की प्रतीति या दृढ़ प्रतीति होनी चाहिए कि जीव अन्य है और पुद्गल अन्य है, इसी का नाम सम्यग्दर्शन है। यही जैनागम का सार है। यह मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है। सबसे पहले इसी का निखिल यल से आश्रय करना चाहिए। इसी के होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान की कोटि में और चारित्र सम्यक् चारित्र की कोटि में आता है। जिस प्रकार नींव के बिना महल का निर्माण नहीं होता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान
और चारित्र का प्रासाद निर्मित नहीं होता है। इसी सम्यक्त्वपने का दूसरा नाम भेदविज्ञान है। भेदविज्ञान कारण है, सम्यग्दर्शन कार्य है। कारण में कार्य का उपचार कर भेदविज्ञान को ही सम्यग्दर्शन माना गया है।
इस संसार में जो कोई सिद्ध हुआ, वह भेदविज्ञान से ही हुआ। जो कोई भी बंधे हए हैं, वे भेदविज्ञान के अभाव के कारण ही बंधे हुए हैं। जितने अंश तक सदष्टि (सम्यग्दर्शन) होती है, उतने अंश तक बन्ध नहीं होता। इसी प्रकार जितने अंश तक राग है, उतने अंश तक बन्धन है। दुःखों से छुटकारा पाने के लिए बन्धन से छुटकारा अनिवार्य है। अतः जीव और पौद्गलिक कर्मों में अपने-अपने प्रभाव के कारण द्वन्द्र होता रहता है। जब जीव का प्रभाव अपनी समग्रता पर होता है, तब कर्म की सत्ता विगलित हो जाती है। बुद्धिमान् को अपना प्रयोजन सिद्ध करना चाहिए। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है
कमों कहिताबन्धी जीवो जीवहितावहः ।
स्व-स्व प्रभावभूयस्त्वे स्वार्थ को वा न वाञ्छति ॥ पण्डितप्रवर बनारसीदासजी ने सम्यक्त्वी को स्वार्थी कहा है
स्वारथ के साँचे परमारथ के साये चित, साचे साचे बैन कहै, साचे जैनपती हैं। काहू के विरुद्ध नाहि परजाय बुद्धि नाहि, आत्म गवेषी न गृहस्थ हैं, न जती हैं। सिद्धि रिद्धि वृद्धि दीसै घट में प्रकट सदा अंतर की लच्छि सौं अजाची लच्छपती हैं। दास भगवन्त के उदास रहैं जगत सौं सुखिया सदैव ऐसे जीव समकिती हैं। समयसार नाटक, ७
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