________________
जिनवाणी- विशेषाङ्क
सच्चा स्वार्थी बनने के लिए आत्मा का गवेषक बनना पड़ता है। या तो अपने स्वरूप की पहिचान और संभाल अपने आप करनी पड़ती है या श्रीगुरु के मुख से वाणी सुनकर भेदविज्ञान की ज्योति जगानी पड़ती है। इससे सुविवेक प्रकट होता है । सुविवेक प्रकट होने से आत्मा के अनन्त भाव प्रकट होने लगते हैं और जीवन तथा मोक्ष की दशा स्थिर होती है। ऐसे व्यक्ति दर्पण की तरह अविकार और सदा सुखदायक स्थिर-रूप में रहते हैं ।
२०८
ज्ञानी व्यक्ति चिन्तन करता है कि यह आत्मा अपने ही गुण और पर्याय से तीनों काल प्रवाहरूप परिणमता है। उसका अपना ही आधार होता है। उसका अन्तर और बाह्य प्रकाशवान् एक रस रहता है। इससे उसमें किसी प्रकार भी न्यूनता नहीं आती है । वह भव विकार से रहित रहता है। जीव में सर्वाङ्ग चेतना का रस उसी प्रकार भरा हुआ है जैसे मिश्री में सर्वत्र मिठास अथवा नमक में सर्वत्र क्षार रस भरा हुआ है।'
उपर्युक्त अवस्था को प्राप्त करने के लिए सद्गुरु कहते हैं कि 'हे भव्य जीवों ! मोहरूपी कारागार को तोड़ डालो, अपने गुणों को ग्रहण कर सम्यक्त्व को ग्रहण करो और अपने शुद्ध अनुभव में क्रीडा करो। पौगलिक कर्म पिण्ड और रागादिक भाव से तुम्हारा मेल नहीं है। ये प्रकट रूप में जड़ हैं और तुम चेतन हो । जैसे जल और तेल दोनों भिन्न-भिन्न हैं । जैसे फिटकरी के संयोग से कीचड़ को जल से अलग करते हैं, उसी प्रकार जीव और अजीव को पृथक् पृथक् कर आत्म-शक्ति की साधना करनी पड़ती है, ज्ञान के उदय की आराधना करनी पड़ती है, ऐसे जीव ही भवसागर से पार उतरते हैं।
1
कविवर बनारसींदास ने भेदविज्ञानी की प्रशंसा करते हुए लिखा हैभेद विज्ञान जग्यौ जिनके घट सीतल चित्त भयौ जिम चंदन । केलि करै सिव मारग में जगमाँहि जिनेसर के लघुनन्दन । सत्य स्वरूप सदा जिन्हकै प्रकट्यौ अवदात मिथ्यात निकंदन । सांत दसा तिन्ह की पहिचानि करै कर जोरि बनारसी वन्दन ।। -समयसार नाटक, मंगलाचरण, ६
बनारसीदास जी भेदविज्ञानी को जिनेश्वर के लघुनन्दन कहते हैं, ऐसा कहने से भेदविज्ञान की उच्चता सिद्ध होती है ।
शुद्धाय निश्चय से अकेला चिदानन्द, पूर्ण विज्ञानघन, अपनी आत्मा को उसकी गुण और पर्यायों सहित ग्रहण करता है । व्यवहार नय की दृष्टि से वह पूर्णज्ञान का पिण्ड पाँच द्रव्य तथा नव तत्त्व में एक सा हो रहा है। पाँच द्रव्य और नवतत्त्वों में चेतन निराला है, ऐसा श्रद्धान करना और इसके सिवाय अन्य भाँति श्रद्धान नहीं करना आत्मा का स्वरूप है । यह आत्मा का स्वरूप सम्यग्दर्शन है। उपर्युक्त पाँच द्रव्यों से तात्पर्य पंचास्तिकाय से है। छह द्रव्यों में यहाँ काल को गौण किया है । जैसे कि घास, काठ, बाँस व जंगल के अनेक ईंधन आदि अग्नि में जलते हैं । उनकी आकृति पर ध्यान देने से अग्नि अनेक रूप दिखती है, परन्तु यदि दाहक - स्वभाव पर दृष्टि डाली जाय तो सब अग्नि एक रूप ही है, उसी प्रकार जीव नवतत्त्वों में शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र आदि अनेक रूप हो रहा है, परन्तु जब उसकी चैतन्यशक्ति पर विचार किया जाता है, तब वह अरूपी और अभेदरूप गृहीत होता है।
४.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org