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सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन मिथ्याग्रह का नाश हो जाए और अनुक्रम से जीव सर्व दोषों से मुक्त हो जाए।"
जीव सहज-स्वरूप से रहित नहीं है। परन्तु उस सहजस्वरूप का जीव को भान मात्र नहीं है, भान होना ही सहज स्वरूप.से स्थिति है। संग के योग से यह जीव सहज स्थिति को भूल गया, संग की निवृत्ति से सहज स्वरूप का अपरोक्ष भान प्रकट होता है। असंगता सर्वोत्कृष्ट है । सर्वजिनागम में कहे हुए वचन-मात्र असंगता में समा जाते हैं। ___ 'देहादि से भिन्न, उपयोगी, अविनाशी आत्मा' का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान और उसीकी प्रतीति सम्यक् दर्शन है। प्रतीति कैसे हो?
वह प्रतीति आत्म-भावना करने से होती है। मैं देहदि स्वरूप, नहीं, स्त्री-पुत्रादि मेरे नहीं, मैं शुद्ध चैतन्यस्वरूपी आत्मा हूँ। जब तक देहात्मबुद्धि दूर नहीं होती तब तक शुद्ध स्वरूप की प्रतीति नहीं होती। देव, गुरु, धर्म प्रबल प्रेरक है। सत्पुरुष और सत्शास्त्र माध्यम हैं । आत्मा का भान तो स्वानुभव से होता है। आत्मा अनुभवगोचर है। अनुमान जो है वह माप है । अनुभव जो है वह अस्तित्व है। जड़ और आत्मा तन्मय नहीं होते। सूत की आंटी सूत से कुछ भिन्न नहीं है । परन्तु आंटी खोलने में विकटता है । यद्यपि सूत न घटता है और न बढ़ता है। उसी तरह आत्मा में आंटी पड़ गई है। त्याग, वैराग्य, उपशम और भक्ति को सहज स्वरूप किए बिना आत्मदशा प्रकट नहीं होती। शिथिलता और प्रमाद से यह विस्मृत हो जाती है। अपने क्षयोपशम बल को कम जानकर अहंता-ममतादि का पराभव होने के लिए नित्य अपनी न्यूनता (दोष-निरीक्षण करना) देखना, विशेष संग-प्रसंग कम करना योग्य है।° आत्महेतु भूत संग (अर्थात् सत्संग) के सिवाय मुमुक्षु जीव को सर्व संग कम करना योग्य है। क्योंकि उसके बिना परमार्थ का आविर्भाव होना कठिन है। शरीरादि किसके हैं? यह माने कि मोह के हैं। इसलिए असंग भावना रखना योग्य है।३२ जो कोई सच्चे अन्तःकरण से सत्पुरुष (सद्गुरु) के वचनों को ग्रहण करेगा वह 'सत्य' को पाएगा, इसमें कोई संशय नहीं है। स्वभाव में रहना और विभाव से छूटना, यही मुख्य बात समझनी है।
उपजे मोह विकल्पथी समस्त आसंसार।
अन्तरमुख अवलोकतां, विषय थतां नहीं वार ॥२३.. . इस जीव के अपनी-अज्ञानतावश उपजे मोह-विकल्प से ही जन्म-मरणादि समस्त संसार की अविचल धारा बह रही है। यदि संसार-दृष्टि हट जाए, अन्तरदृष्टि हो जाए, अन्तरमुख-अवलोकन, आत्मावलोकन हो जाए तो दृष्टि सम्यक् हो जाए और ऐसा होते ही समस्त मोह-विकल्प का विलय होना प्रारंभ हो जाता है। फिर कुछ देर नहीं लगती, उसी भव में, तीन भवों में अथवा पंद्रह भवों में और दृष्टि अपने से हटाकर विपरीत आचरण में लग जाए तो भी अर्ध पुद्गल परावर्तन में मोक्ष होगा ही होगा। श्रीमद्जी अपने अन्तिम काव्य में उस मार्ग को प्रशस्त करते हैं
इछे छे जे योगीजन, अनंत सुखस्वरूप। मूल शुद्ध ते आत्मपद, सयोगी जिन स्वरूप ॥१॥ आत्मस्वभाव अगम्य ते, अवलंबन आधार। जिनपदधी दर्शावियो, तेह स्वरूप प्रकार ॥२॥
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