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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय - विवेचन
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भोगों को, परिग्रह को, हिंसा- झूठ आदि पापों को त्यागकर संयम धारण किया है, वीतराग मार्ग का आचरण कर रहा है उसे परावलंबी, पराधीन, असहाय, अनाथ व दुःखी मानना साधु को असाधु मानने रूप मिथ्यात्व है । ये दोनों मिथ्यात्व साधक से संबंधित हैं ।
(९-१०) अमुक्त को मुक्त और मुक्त को अमुक्त श्रद्धना
जिसका जीवन तथा सुख, शरीर, इन्द्रिय, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, संपत्ति, सत्ता, सत्कार, परिवार, संसार आदि पर से जुड़ा हुआ है, बंधा हुआ है, 'पर' पर आधारित है, जो पराधीन है, पराश्रित है, भोगों का दास है वह अमुक्त है, वह दुःख व दोषों से ग्रस्त है । उस दुःख व दोष से ग्रस्त को, अमुक्त को स्वाधीन व सुखी मानना अमुक्त को मुक्त मानने रूप मिथ्यात्व है
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जो विषय कषाय, राग-द्वेष - मोह आदि समस्त विकारों से या दोषों से मुक्त है, निर्दोष है, निर्विकार है, स्वाधीन है, इन्द्रियातीत, देहातीत, लोकातीत, भयातीत है, उसके जीवन को सुख से वंचित, दुःखी, पराधीन, अकर्मण्य, नीरस, निस्सार या व्यर्थ मानना मुक्त को अमुक्त मानने रूप मिथ्यात्व है । ये दोनों मिथ्यात्व सिद्धत्व से संबंधित हैं ।
मिथ्यात्व के उदय का अभाव सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन एवं दर्शनगुण में परस्पर क्या सम्बन्ध है अब इस पर विचार किया जा रहा है दर्शन गुण के विकास से सम्यग्दर्शन
पहले कह आए हैं कि दर्शन गुण है - 'स्व-संवेदन' । स्व-संवेदन होता है निर्विकल्पता से । इसलिये दर्शन की परिभाषा में स्व-संवेदन और निर्विकल्पता दोनों को स्थान दिया गया है। इनमें निर्विकल्पता कारण है और स्व-संवेदन कार्य । स्व संवेदन ही चिन्मय चैतन्य का अनुभव है जो चेतना का सबसे श्रेष्ठ, मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण गुण है।
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यह नियम है कि जितनी - जितनी निर्विकल्पता बढ़ती जाती है उतना - उतना दर्शन गुण का विकास होता जाता है अर्थात् चिन्मयता का, निज स्वरूप का अनुभव (बोध) होता जाता है । जितना-जितना निज स्वरूप का अनुभव होता जाता है उतना - उतना ही जड़ देह से चेतन की भिन्नता का अनुभव होता जाता है तथा सत्य प्रकट होता जाता है । जितना - जितना सत्य प्रगट होता जाता है उतना - उतना सत्य का दर्शन ( अनुभव) होता जाता है । सत्य के दर्शन से, सत्य के साक्षात्कार से अविनाशी चैतन्य निज स्वरूप का अनुभव देहातीत स्थिति के स्तर पर हो जाता है । तब देह (जड़) से चेतन की भिन्नता का स्पष्ट अनुभव या दर्शन होता है । यही ग्रंथिभेद है, यही भेद विज्ञान है, यही सम्यग्दर्शन है । अतः सम्यग्दर्शन के लिए दर्शन गुण (स्व संवेदन) का विकास अनिवार्य है । दर्शन गुण का विकास निर्विकल्पता से ही संभव है । निर्विकल्पता वहीं संभव है जहां समभाव है अर्थात् आंतरिक स्थिति या अनुभूति के प्रति कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव न होकर केवल द्रष्टाभाव है I
अभिप्राय यह है कि समत्वभाव से निर्विकल्पता आती है । निर्विकल्पता से
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