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जिनवाणी-विशेषाङ्क निसर्ग के इस यथार्थ ज्ञान से यह भी बोध होता है कि आत्मा के द्वारा पौद्गलिक नश्वर पदार्थों के सुख का भोग करने से इनसे संबंध जुड़ता है। यह संबंध जुड़ना ही बंधन है। पौद्गलिक पदार्थों से संबंध जुड़ने से ही कामना, ममता, राग, द्वेष, मोह आदि समस्त दोष (पाप) उत्पन्न होते हैं। इन्हीं दोषों से आत्मा को जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, चिन्ता, पराधीनता आदि दुःख भोगने पड़ते हैं। अत:समस्त दुःखों से मुक्ति पाने का उपाय शरीर, संसार, सम्पत्ति आदि समस्त पौद्गलिक अनित्य वस्तुओं से संबंध विच्छेद करना है, इनकी कामना, ममता, तादात्म्य आदि का त्याग करना है, इनसे अतीत होना है।
यह लक्ष्य ही सम्यक् दर्शन का लक्षण है जो शम, संवेग, निर्वेद एवं अनुकंपा के रूप में प्रकट होता है। ___ आशय यह है कि जो सम्यग्दर्शन निसर्ग के अवलोकन, चिंतन-मनन के निमित्त से होता है वह निसर्गज सम्यग्दर्शन है और जो किसी महापुरुष की वाणी, गुरु व ग्रंथ के निमित्त से होता है वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है। मिथ्यात्व के दश प्रकार
सम्यग्दर्शन के विपरीत मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन है। मिथ्यात्व के दश भेद प्रसिद्ध हैं। इन्हें समझलें तो सम्यग्दर्शन का स्वरूप अधिक स्पष्ट हो जायेगा। इसलिए अभी इन्हीं पर विचार किया जा रहा है।
सम्यग्दर्शन की उपलब्धि मिथ्यात्व के उदय से रहित होने से ही होती है। स्थानांग सूत्र के दशवें स्थान में मिथ्यात्व दश प्रकार का कहा है-(१) अधर्म को धर्म श्रद्धना (२) धर्म को अधर्म श्रद्धना (३) उन्मार्ग को सन्मार्ग श्रद्धना (४) सन्मार्ग को उन्मार्ग श्रद्धना (५) अजीव को जीव श्रद्धना (६) जीव को अजीव श्रद्धना (७) असाधु को साधु श्रद्धना (८) साधु को असाधु श्रद्धना (९) अमुक्त को मुक्त श्रद्धना और (१०) मुक्त को अमुक्त श्रद्धना। (१-२) अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म श्रद्धना ___ वस्तु का स्वभाव धर्म है और पर के संयोग से उत्पन्न हुई दशा विभाव है, अधर्म है। विभाव वे हैं जिनका वियोग हो जावे, जो सदा साथ न दें, धोखा दे जावें । इस दृष्टि से संपत्ति, संतति, शक्ति, सत्ता, शरीर, इन्द्रियाँ आदि संसार की समस्त वस्तुएं पर हैं। इनके संयोग से मिलने वाला विषय-भोगों का एवं सम्मान-सत्कार, पद प्रतिष्ठा आदि का सुख विभाव है। इस सुख को स्वभाव मानना, जीवन मानना अधर्म को धर्म मानना है तथा इस सुख की पूर्ति, पोषण व रक्षण के लिए दूसरों का शोषण करना, धन का अपहरण करना, हिंसा, झूठ आदि पाप करना भी अधर्म है। इस अधर्म को अपना कर्त्तव्य मानना, आवश्यक मानना, न्यायसंगत मानना भी अधर्म को धर्म मानना है। इसी प्रकार अकरुणा को अर्थात् करुणा के त्याग को, दया भाव के त्याग को स्वभाव व धर्म मानना अधर्म को धर्म मानने रूप मिथ्यात्व है।
संयम, त्याग, तप, मैत्री, प्रमोद, करुणा, अनुकंपा, वात्सल्य, वैयावृत्त्य-सेवा, दान, दयालुता, मृदुता, विनम्रता, सरलता आदि गुण जीव के स्वभाव हैं, धर्म हैं, क्योंकि ये किसी कर्म के उदय से नहीं होते हैं। इन गुणों को विभाव मानना, संसार-भ्रमण का
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