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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन
१५५ अभिनेता की तरह हानि-लाभ, संयोग-वियोग, जय-पराजय में सुख-दुःख नहीं मानता। संसार को कैद समझता है व खुद को घर का स्वामी नहीं ट्रस्टी समझता है। चारित्र के अभाव में भी इन्द्रियजन्य भोगों में आसक्त नहीं होता, आत्मभाव में परम आनन्द की अनुभूति करता हुआ परभावों से विरत रहता है। ममत्व एवं आसक्ति के जाल से बचता हुआ एकांत आत्मधन की सुरक्षा में सजग एवं देहातीत बन कर रहता है। उसका आत्मबल इतना प्रखर होता है कि वह किसी भी परिस्थिति से विचलित नहीं होता। यदि श्रमणोपासक अर्हन्नक श्रावक का सम्यक् दर्शन इतना प्रभावी नहीं होता तो वह उपसर्ग से भटक जाता, लेकिन संयोग-वियोग में उसका दृष्टिकोण सम्यक् तथा नव तत्त्व की आत्मस्तर तक उसे अनुभूति थी।
उपर्युक्त भाव निश्चय सम्यक्त्वधारी में पाए जाते हैं, जो जन्म-मरण की दुःख मूलक परम्परा का उच्छेद कर अन्ततः जीवन के सच्चे ध्येय एवं लक्ष्य रूप परम आनंद, शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है। चन्दन-गुरुदेव ! महती कृपा कर आपने सम्यक्त्व की महिमा बताई लेकिन ऐसे लाभकारी सम्यक्त्व की प्राप्ति का उपाय क्या है? गुरुदेव-कर्मों की स्थिति जब अन्तः कोटा-कोटि के भीतर आती है तब जीव में सम्यक्त्व प्राप्ति की पात्रता आती है। सम्यक्त्व की प्राप्ति का उपाय बताते हुए कहा-(१) निसर्गज और (२) अधिगमज
(१) निसर्गज-अर्थात् स्वाभाविक रूप से स्वतः प्राप्त होना।
(२) अधिगमज-अर्थात् गुरु के उपदेश अथवा बाह्य निमित से प्राप्त होना। वैसे अन्तरंग में तो मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम, क्षयोपशम रहता है। इसके लिये जीव तीन करण करता है (करण-आत्मशक्ति को कहते हैं)–१. यथा-प्रवृत्तिकरण २. अपूर्वकरण एवं ३. अनिवृत्तिकरण ।
१. यथा प्रवृत्तिकरण वाला ग्रन्थि-भेद तक पहुँच जाता है, अभवी जीव भी अनेक बार यथाप्रवृत्तिकरण कर लेता है। ___ (२) अपूर्वकरण वाला ग्रन्थिभेद के लिये प्रयत्न करता है।
(३) अनिवृत्तिकरण वाला ग्रन्थिभेद करके ही रहता है। अर्थात् सम्यक्त्व प्राप्त करके ही रहता है। समझने के लिये जैसे कुछ लोग पहाड़ी रास्ते से ग्रामांतर जा रहे थे । मार्ग में डाकू मिल गए। कुछ तो डाकुओं को देखकर पुनः लौट गये। कुछ ने साहस कर मुकाबला किया मगर विजय नहीं पा सके और कुछ ने मुकाबला कर विजय मिला ली। इसी क्रम में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण को समझना चाहिये।
- और वैसे उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन में वर्णित, निसर्गरुचि, उपदेश रुचि आदि १० रुचियों की निरन्तर आराधना करनी चाहिये। विशाल-गुरुदेव ! सम्यक्त्व को पुष्ट करने एवं इसे स्थिर रखने में किन बातों की अपेक्षा है?
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