________________
सम्यग्दर्शन: शास्त्रीय-विवेचन .
१. श्म-कषायों की मंदता २. संवेग-वैराग्य भाव तथा मोक्ष की अभिलाषा ३. निवेद-संसार से उदासीनता ४. अनुकंपा–दुःखियों को देख कर हृदय का पिघलना ५. आस्था-देव, गुरु एवं जिनवाणी के प्रति श्रद्धा ।
हंसराज-गुरुदेव ! वर्तमान में जो सम्यक्त्व को लेकर जोड़-तोड़ की जाती है, वह कहां तक उचित है? गुरुदेव-समकित कोई लेने-देने की वस्तु नहीं है, यह तो आत्मिक भाव है. आत्मा की शुद्ध परिणति है। जब तक मोह कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम रहता है तब तक यह रहता है, अन्यथा चला भी जाता है। व्यवहार में जो सम्यक्त्व दिलाई जाती है उसमें मात्र देव, गुरु, धर्म का शुद्ध स्वरूप समझाया जाता है। इस स्वरूप को समझने वाले कम होते हैं। मगर ममत्व को जोड़ने वाले अधिक होते हैं। जहाँ मोह ममता है वहां संसार वृद्धि ही है। मनीष-तो क्या गुरुदेव, ऐसा कहा जा सकता है कि आज जो अशांति एवं तनाव भरा वातावरण है उसमें एक कारण सम्यक् दर्शन का अभाव भी है। गुरुदेव–प्रिय मनीष ! सत्य कहा तुमने, यही नहीं बल्कि जो साम्प्रदायिकता, पारिवारिक कलह, सामाजिक विग्रह आदि समस्याएं हैं उनमें भी सम्यक् दर्शन का अभाव होना एक कारण है। गहराई से देखें तो समस्त दुःखों का मूल कारण मिथ्यादर्शन है। यही कारण है कि अठारह पापों में उसे सबसे बड़ा पाप माना गया है। पर में स्व की बुद्धि होने से दुःख की कड़िया जुड़ती हैं। जो वस्तुएं स्वयं क्षणभंगुर हैं, अस्थिर हैं, अशरणभूत हैं, भला वे जड़ वस्तुएं कैसे किसी के शान्ति-आनन्द में सहायक बन सकती हैं। अतः ज्ञाताद्रष्टा बनकर, जगत् को स्वप्नवत् समझ कर आत्म-भाव में रमण करता हआ आचरण करे तो निश्चित ही वह तनावमुक्त बन सकता है। यही तो सम्यक्त्व का लक्षण है। जितना शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा एवं आस्था का भाव जागेगा, उतना-उतना समस्त दुःख मूलक समस्या का समाधान प्राप्त करेगा। चन्दन-गुरुदेव ! आज हमें पता चला कि गुरु का सान्निध्य कितना सुखद एवं ज्ञानवर्धक है। हम लोग प्रमाद एवं संकोचवश इतने दिन नहीं आये, हमें गहरा पश्चात्ताप है, लेकिन आज की चर्चा ने हमारे अन्तर्मन की आंखें खोल दी। भाई हंसराज ! साधुवाद के पात्र हैं, जिन्होंने हमारी धर्म रुचि जगाई।
(अन्त में सभी गुरुदेव का मांगलिक श्रवण कर विसर्जित हुए)
प्रेषक-मीठालाल मधुर, मधुर टेक्सटाइल, बालोतरा (राज.)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org