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जिनवाणी- विशेषाङ्क
कृपाकर फरमाएं ।
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गुरुदेव - चतुर्गति रूप इस अनन्त संसार में यह सांसारिक प्राणी अनादि अनन्तकाल से जन्म, जरा, रोग एवं मरण के भीषणतम दुःख उठाता हुआ परिभ्रमण कर रहा है जीव ने इन दुःखों से मुक्त होने के लिये कठिन साधना की, घोर तपश्चर्या की, गहरे ज्ञान में अवगाहन किया, कषाय-मंदता के लिए प्रखर- साधना भी की और अनेक बार चारित्र-पर्याय (द्रव्य चारित्र) का पालन भी किया, मगर सम्यक् दर्शन के अभाव में समस्त धार्मिक क्रियाकलाप मोक्षमार्ग में एक कदम भी सहायक नहीं बन सके । सम्यक् दर्शन के अभाव में सारा ज्ञान मिथ्या है, सारा तप अज्ञान तप (बालतप) है, सारा चारित्र कोरा क्रियाकांड है। अर्थात् सम्यक्त्व मूल है, नींव है, समस्त धर्म-साधना में आगे बढ़ने की ठोस भूमिका है। जब कभी भी किसी ज्ञानी ने प्रभु प्रार्थना करते हुए याचना की है तो 'सद् बोधिरत्न' की याचना की है, ज्ञान की नहीं चारित्र की नहीं, स्वर्ग - अपवर्ग की नहीं, पूजा-पद प्रतिष्ठा की नहीं, बस एक मात्र ‘बोधिरत्न' (सम्यक्त्व) की ही प्रार्थना की है । क्योंकि यह है तो सभी कुछ है । जैसा कि कहा है
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विनैककं शून्यगणा वृथा यथा विनार्कतेजो नयने वृथा यथा । विना सुवृष्टि कृषिर्वृथा यथा, विना सुदृष्टिं विपुलं तपस्तथा ।
अर्थात्-जिस प्रकार एक अंक के बिना केवल शून्यों का कोई मूल्य नहीं, वर्षा के बिना खेती व्यर्थ हो जाती है, आँखे होते हुए भी सूर्य के प्रकाश के बिना उनकी कोई कीमत नहीं है, उसी प्रकार सम्यक् दृष्टि के बिना विपुल तपश्चरण व्यर्थ है । सम्यक् दर्शन बिना कर्म क्षय नहीं, मात्र पुण्य बन्ध हो सकता है। इसीलिए उत्तराध्ययन २८/३० में कहा कि सम्यक् दर्शन के बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान के अभाव में चारित्र नहीं, तथा चारित्र के बिना मोक्ष और निर्वाण असंभव है । इसीलिए कहा है कि 'सम्यक् दर्शन आध्यात्मिक विकास का प्रथम सोपान है । सम्यक् दर्शन केवलज्ञान का उत्पत्ति स्थान है जिसे विद्वज्जनों ने केवलज्ञान की जननी भी कहा है ।
यदि जीव एक बार सम्यक्त्व स्पर्श कर ले तो निश्चय ही अधिकतम देशोन अर्धपुद्गल परावर्तन काल में मुक्ति-लाभ प्राप्त कर लेता है ।
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सम्यक्त्व के रहते जीव नारकी, तिर्यंच, भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद - इन सात बोलों का बन्ध नहीं करता ।
यदि सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद मिथ्यात्व में चला भी गया तो भी वह जीव अंतः कोटाकोटी सागरोपम की स्थिति से ज्यादा कर्म बंध नहीं करता ।
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यदि क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हो जाय और पूर्व में आयु बन्धा हुआ नहीं है तो जीव उसी भव मे मोक्ष चला जाता है, यदि पूर्व में आयुष्य बंध गया तो चार भव से ज्यादा नहीं करता है। मिथ्यात्वी जीव उत्कृष्ट तप करता हुआ करोडों वर्षों में जिन कर्मों को नहीं खपाता उसे सम्यक् दृष्टि अल्पसमय में ही क्षय कर लेता है । हर सम्यक्त्वधारी जीव का दृष्टिकोण इतना सम्यक्, उच्च एवं आदर्श होता है कि सांसारिक-क्रियाकलाप करता हुआ भी वह जल कमलवत् निर्लिप्त रहता है तथा वह
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