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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन हैं। उमास्वाति का कहना है तत्त्वार्थों का श्रद्धान, 'सम्यग्दर्शन' है। इन्होंने जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष सात तत्त्व माने हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने भी इसी तरह का उल्लेख किया है। उत्तराध्ययन में इन सात तत्त्वों के साथ पुण्य और पाप को मिलाकर नौ तत्त्व कहे हैं। दर्शन पाहुड और पंचसंग्रह में छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय और सात तत्त्वों के स्वरूप पर श्रद्धान करने को सम्यग्दर्शन कहा गया है। पंचास्तिकाय में उल्लेख है कि काल के साथ पांच अस्तिकायों के विकल्पों के जो नौ रूप हैं वे नौ पदार्थ ही भाव हैं। इन पर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। मूलाचार, द्रव्यसंग्रह, वसुनन्दि श्रावकाचार और धवला प्रभृति ग्रंथों में भी पदार्थों/तत्त्वार्थों के श्रद्धान को 'सम्यग्दर्शन' कहा गया है।" ___ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है कि जो वीतराग अरिहंत को देव मानता है, दया को उत्कृष्ट धर्म मानता है, और निर्ग्रन्थ साधुओं को गुरु मानता है वही सम्यग्दृष्टि है। नियमसार में सम्यक्त्व की चर्चा के संबंध में कहा है कि आप्त, आगम और तत्त्वों की श्रद्धा से सम्यक्त्व होता है। रत्नकरकण्डश्रावकाचार में उल्लेख है कि तीन प्रकार की मूढ़ता, आठ प्रकार के मद से रहित होकर, सत्यार्थ देव, शास्त्र और गुरु पर आठों अंगों सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। समयसार में सम्यगदर्शन को परिभाषित करते हुए कहा है कि समस्त नयों के पक्षों से रहित जो कुछ कहा गया है, वह सब समयसार है। इसे ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहा गया है।'
कुछ आचार्यों ने पदार्थों के विपरीत-अभिनिवेश रहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है, कुछ ने पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना है। तात्पर्याख्यावृत्तिकार के अनुसार तो विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाववाले निज परमात्मा में रुचि को जहां एक स्थान पर सम्यग्दर्शन बताया गया है वहीं दूसरे स्थान पर शुद्धात्मा ही उपादेय है, यह श्रद्धान सम्यग्दर्शन निरूपित है। एक अन्य स्थान पर यथार्थ रूप से जाने गये जीव आदि नौ पदार्थ, शुद्धात्मा से भिन्न हैं, इस प्रकार का जो सम्यग्बोध होता है, वह सम्यग्दर्शन है। इस प्रकार से उल्लेख किया गया है। प्रवचनसार की तात्पर्याख्यावृत्ति में भी इसी प्रकार की मान्यताएं व्यक्त की गई हैं। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए विभिन्न योग्यताओं की आवश्यकता के संबंध में आगम में उल्लेख है कि अन्य योग्यताओं के साथ प्रमुख रूप से चारों गति के संज्ञी, पर्याप्त, भव्य, जागृत, साकारोपयोगी जीव ही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं या इन योग्यताओं के धारक ही सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के अधिकारी हैं।
सम्यग्दर्शन के भिन्न-भिन्न लक्षणों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि इन लक्षणों में भिन्नता होने के पश्चात् भी सिद्धान्तानुसार कोई भेद नहीं है, क्योंकि दिखाई देने वाला भेद शैलीगत है, वास्तविक नहीं। सारांश रूप में लक्षणों को देखा जाय तो इन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम तत्त्वार्थों का श्रद्धान, दूसरा-देव, शास्त्र व गुरु तथा धर्म पर श्रद्धान, तीसरा स्व-पर के भेदविज्ञान के साथ शुद्धात्मा की उपलब्धिरूप श्रद्धान। इन तीन वर्गों में परस्पर न कोई सैद्धान्तिक भेद है और न ही अलगाव।
कुदेव आदि का श्रद्धान करने से मिथ्यात्व का सद्भाव होता है। अरिहन्त आदि
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