________________
११७
सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन
इस श्वेतांबर मत एवं तद्विरुद्ध पूज्यपाद द्वारा प्रतिपादित दिगंबर मत इन दोनों को उद्धृत करके, समन्वयात्मक भूमिका का प्रयत्न करते हुए आचार्य अकलंक ने मत प्रकट किया है कि श्वेताम्बर मत पूर्ण ज्ञान को लक्षित करता है, और दिगम्बर मत ज्ञानसामान्य को, अतः दोनों में विरोध नहीं है। दूसरे, सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान साथ साथ उत्पन्न होते हुए भी तथा एक ही आत्मद्रव्य के पर्याय होते हुए भी एक नहीं बल्कि परस्पर भिन्न हैं। जैसे, एक साथ उत्पन्न होने पर भी गाय के दो सींग या सूर्य का प्रकाश एवं प्रताप परस्पर भिन्न माने जाते हैं। विशेषतः इसलिए भी, कि दर्शन का स्वरूप (या सामर्थ्य) है 'श्रद्धान', और ज्ञान का स्वरूप है-'तत्त्व का अवाय'।१२ और, पूज्यपाद स्वयं भी तो ऐसे ही भेद को स्वीकार करते हैं। जब वे कहते हैं कि 'अल्पान्तरादभ्यर्हितं पूर्वं निपतति । ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात्।' इसी को समझाते हुए अकलंक ने कहा है 'दर्शनसंनिधाने सति अज्ञानस्यापि ज्ञानभावात्, ज्ञात्वाप्यश्रद्दधतस्तदभावात् । अर्थात्, दर्शन हो तभी अज्ञान भी 'ज्ञान' हो जाता है, सम्यग्दर्शन (रूप सम्यक श्रद्धान) न हो तो, ज्ञान भी अज्ञानवत् सिद्ध होता है। या, पूज्यपाद की बात को अक्षरशः लें तो सम्यग्दर्शन हो, तभी (सामान्य) ज्ञान को भी 'सम्यक् ज्ञान' कहलाने का अवसर प्राप्त होता है, इसी कारण सम्यग्दर्शन अधिक मान्य/पज्य है और अल्पवर्णों वाले सम्यग्ज्ञान से भी पहले द्रन्द्र समास में स्थान मिलने का अधिकारी भी। (यहां भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान (सामान्य का परस्पर भेद गृहीत है, हालांकि दोनों का युगपद्लाभ भी कहा गया है, पर (द्वादशांगों तथा चतुर्दश पूर्वो के) 'पूर्ण श्रुतज्ञान' तथा केवलज्ञान के लिए तत्पूर्व सम्यग्दर्शन होना आवश्यक है' ऐसा श्वेताम्बर मत का अर्थघटन करें, तो उसके साथ कोई विरोध नहीं होगा। . सम्यग्दर्शन-ज्ञान के भेदाभेद तथा पौर्वापर्य की चर्चा के इस संदर्भ में, सम्यग्दर्शन की द्विविध उत्पत्ति बताने वाले त.सू. १.३ (तन्निसर्गादधिगमाद्वा) और उस पर पूज्यपाद की वृत्ति का परामर्श यहां प्रसंग प्राप्त लगता है। यहां पृ. १२ पर इसकी चर्चा का कथन है: 'निसर्ग यानी स्वभाव अधिगम यानी अर्थावबोध । शंका .- क्या निसर्गज सम्यग्दर्शन में पदार्थों का ज्ञान नहीं होता? यदि होता है तो वह अधिगमज से भिन्न नहीं रहता; यदि नहीं होता, तो किसी पदार्थ के बारे में न जानने वाले को उसके विषय में श्रद्धान (यानी सम्यग्दर्शन) कैसे हो सकता है?' इस प्रकार की शंका उपस्थित करके, फिर समाधान किया गया है 'यह दोष (लगाना ठीक नहीं है, सूत्रोक्त दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शन में अंतरंग हेतु समान है: 'दर्शन मोह कर्म का क्षय, उपशम या क्षयोपशम । उस अंतरंग हेतु के रहते, जो सम्यग्दर्शन बाह्योपदेश के बाद जीवादि पदाथों के अवबोध (रूप निमित्त) वशात उत्पन्न हो उसे अधिगमज कहा है और जो ऐसी प्रक्रिया के बिना ही उत्पन्न हो उसी को निसर्गज नाम दिया गया है।' लगता है, सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करने वाले इस अधिगम का स्वरूप दिगंबराचार्यों के मत में भी ‘अवबोध' का है यानी निश्चित ज्ञान विशेष का नहीं। ___ एक ओर उत्पत्ति की दृष्टि से बताए गए सम्यग्दर्शन के तत्त्वार्थसूत्रोक्त ये दो भेद हैं तो दूसरी ओर तत्त्वार्थसूत्र, १.२ पर अपनी वृत्ति सर्वार्थसिद्धि के अंत में (पृ. १०.२-३) पूज्यपाद ने ही उसके दो और भेद भी बताए हैं 'तद्विविधम्, सराग-वीतरागविषयभेदात्, प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org