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सम्यक् दर्शन का श्रद्धा अर्थ
Xxx डा. रामजी सिंह
जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के पूर्व कुलपति एवं गांधी विद्या संस्थान, वाराणसी के वर्तमान निदेशक डा. रामजीसिंह जैन धर्म-दर्शन के प्रमुख विद्वान् हैं । उनका यह लेख सम्यग्दर्शन के श्रद्धा अर्थ के महत्त्व को स्पष्ट करता 1-सम्पादक
धर्म-साधना के तीन अंगों को ही जैन- परम्परा में रत्न- त्रय माना गया है। ये तीन अंग ही मोक्ष के मार्ग बनते हैं, यथा- “ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।” सम्यक् दर्शन का अर्थ है कि हम मूल तत्त्वों के प्रति श्रद्धा या विश्वास रखें- 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' । दर्शन के बाद ज्ञान आता है । इससे 'दर्शन' का महत्त्व मालूम होता है। असल में 'श्रद्धा' ही ज्ञान का अधिष्ठान है। गीता में इसीलिए कहा गया है-'श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं ।' जैन परम्परा में भी 'सम्यक् दर्शन' का अर्थ राग-द्वेष से ऊपर उठकर सत्य का दर्शन करना है । राग-द्वेष ही सत्य - दर्शन के बाधक हैं । आग्रह एवं एकान्त (मतवादी) दृष्टि ही सत्य का शत्रु है । अतः आग्रह एवं पक्षपात से मुक्ति ही सम्यक् दर्शन का उद्देश्य है !
इसलिये सम्यक् - दर्शन में दो बातें आयीं - १. सत्य दृष्टि २. श्रद्धा । यहां पहले को ज्ञान और दूसरे को भक्ति कह सकते हैं । ज्ञान के बिना भक्ति अंधविश्वास का पर्याय हो जाती है | किन्तु भक्ति के बिना ज्ञान चंचल, अस्थिर एवं शंकाशील रहता है। असल में मनुष्य को ज्ञान की आंख चाहिए तो भक्ति का भाव भी चाहिये । सत्य दर्शन ठीक है । यह या तो आत्मबोध से हो सकता है या फिर वीतराग के प्रति श्रद्धाभाव से । लेकिन एक प्रश्न उठता है कि यदि 'सम्यक् - दर्शन' में ज्ञान और श्रद्धा दोनों तत्त्वों का समावेश है तो फिर सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त रत्नत्रय में 'सम्यक् ज्ञान' देने की आवश्यकता ही क्या थी ?
'दर्शन' शब्द चूंकि अनेकार्थक है इसलिए यह अर्थ - व्यामिश्र हो जाता है । दर्शन शब्द के तीन अर्थ सभी परम्पराओं में प्रचलित हैं, यथा ( १ ) चाक्षुष - ज्ञान (२) साक्षात्कार और (३) निश्चित विचारसरणी । किन्तु जैन - परम्परा में दो अन्य अर्थ प्रसिद्ध हैं जो अन्य परम्पराओं में नहीं मिलते। उनमें एक अर्थ है- 'श्रद्धान' और दूसरा अर्थ है-‘आलोचन-मात्र' । तत्त्वार्थसूत्र ने 'श्रद्धान' स्वीकार किया है लेकिन, न्याय ग्रंथों में निर्विशेषसत्तामात्र के बोध अर्थ में भी इसका प्रयोग हुआ है । संक्षेप में दर्शन के विषय में जैन-परम्परा में एक आगमिक दृष्टि है जो भक्ति - प्रधान है और दूसरी न्याय - दृष्टि है जो भिन्न है । प्रमात्व किंवा प्रामाण्य का प्रश्न जैन - परम्परा में तर्क युग आने के बाद का है। पहले यानी आगमयुग और आगमिक दृष्टि तो भाव-भक्ति मूलक है । दर्शन का सम्यक्त्व आध्यात्मिक भावानुसारी है । अगर कोई आत्मा कम से कम चतुर्थ गुणस्थान का अधिकारी हो अर्थात् वह सम्यक्त्व प्राप्त हो तो उसका दर्शन और ज्ञान मोक्षमार्ग रूप तथा सम्यक् रूप माना जाता है ।
सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ लेना कई दृष्टियों से उपयुक्त है
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