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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन
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होता है। सम्यक्त्व-प्राप्ति व उसकी सुरक्षा के लिये मिथ्यात्व को समझना व उससे बचना अति आवश्यक है । मिथ्यात्व का अर्थ है - तात्त्विक एवं पारमार्थिक (जीव के परमअर्थ मोक्ष प्राप्ति की जानकारी आदि) विषयों में विपरीत या हीनाधिक दृष्टि होना । मिथ्यात्वी दूध को दही, पुरुष को स्त्री या पानी को आग नहीं समझता है । वह भी दूध को दूध, पुरुष को पुरुष एवं पानी को पानी ही समझता है। लेकिन तात्त्विक या पारमार्थिक विषयों में वह विपरीत या हीनाधिक मान्यता रखता है तथा वैसी ही प्ररूपणा करता है । उदाहरण के लिए धर्मास्तिकाय को आगमकारों ने चलने में सहायक व अरूपी अजीव-तत्त्व बताया है, मिथ्यात्वी कहता है कि यह बात तो उचित नहीं लगती है। हम हमारी इच्छा से चलते हैं, इच्छा से ठहरते हैं फिर धर्मास्तिकाय तत्त्व बीच में कैसे सहायक हो गया ; यह विपरीत भाव रूप मिथ्यात्व है । अथवा यह समझें कि धर्मास्तिकाय अजीव अरूपी तत्त्व है, चलने में सहायक भी है, लेकिन कोई विशिष्ट शक्ति के माध्यम से कार्य करता है यह अधिक भाव रूप मिथ्यात्व है । अथवा यह समझें कि धर्मास्तिकाय अजीव अरूपी तत्त्व है, लेकिन चलने में सहायक होने वाली बात समझ में नहीं आती; ऐसा मानना हीनभाव रूप मिथ्यात्व है ।
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मिथ्यात्व को आगमकारों ने ५, १०, २५ आदि भेदों से समझाकर हम सामान्य बुद्धि वालों पर परम उपकार किया है । लेख को विस्तार से बचाने के लिए यहाँ इन भेदों का विवेचन नहीं किया जा रहा है। मिथ्यात्व १८ पापों में सबसे भयंकर पाप है । मिथ्यात्व के कारण ही नरक, निगोद, तिर्यंच आदि अशुभ स्थानों में भटकना पड़ता है । मिथ्यात्व के कारण ही जीव के उत्कृष्ट स्थिति वाले (आयुकर्म को छोड़कर) कर्मों का बंध होता है। सूयगडांग सूत्र (१ - १२-१२) में तो यहां तक बताया है कि मिथ्यात्व से संसार मजबूत होता है, जिसमें प्रजा निवास करती है । भावपाहुड, १४३ में बताया है, 'जैसे जीव से रहित शरीर - शव (मुर्दा-लाश) है, उसी प्रकार सम्यक् दर्शन से रहित जीव चलता-फिरता शव है । जैसे शव लोक में त्याज्य होता है, ऐसे ही वह चल शव (मिथ्यात्वी) धर्म-साधना के क्षेत्र में अनादरणीय व त्याज्य होता है ।' मिथ्यात्वी जीवों से समस्त लोक भरा पड़ा है। ऐसा कोई आकाश प्रदेश लोक में नहीं है, जहाँ मिथ्यात्वी जीव नहीं हो । अतः साधक को मिथ्यात्व के घोर पाप से बचने की, सम्यक्त्व प्राप्त करने की तथा उसे सुरक्षित रखने की प्राथमिक आवश्यकता है । सम्यक्त्व - प्राप्ति की प्रक्रिया
सम्यक्त्व-प्राप्ति की आगमिक प्रक्रिया का संक्षेप में विवेचन यहां किया जा रहा है । जिन आत्माओं की विवेक शक्ति पर मिथ्यात्व मोहनीय का गहरा प्रभाव हो, जिनकी आत्मा एक कोटाकोटि से लेकर सित्तर कोटाकोटि सागरोपम तक की स्थिति के मोहनीय कर्म से जकड़ी हुई हो तथा जिन पर अनन्तानुबन्धी कषाय का गहरा आधिपत्य हो, वे आत्मायें उस अवस्था में सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकती हैं। जब जीव पर एक कोटाकोटि सागरोपम से कम स्थिति के कर्मों की सत्ता रह जाती है, तब 'जीव में समकित की पात्रता आती है। जीव की उस समय की वैचारिक भूमिका को यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । उस समय जीव अनन्त काल की गूढ दुर्भेद्य उलझी हुई रागद्वेष की (अनन्तानुबन्धी कषाय की) गांठ तक पहुंचता है, इसी को ग्रन्थिदेश की प्राप्ति कहते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण की प्राप्ति भव्य - अभव्य दुर्भव्य सबको हो सकती है,
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