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जिनवाणी- विशेषाङ्क
अपना धर्म छोड़कर उनके धर्म की चाह करने लगते हैं ।
अनेक बार हमें प्रलोभन मिलते हैं, हमें उपहार आदि का लालच दिया जाता है अथवा हमारी भौतिक लालसाओं जैसे धनादि की प्राप्ति, आरोग्य की प्राप्ति, पुत्र की प्राप्ति आदि के कारण भी प्रपञ्ची गुरुओं एवं देवों को मानने लगते हैं जिससे हमारे सम्यक्त्व में मलीनता आने लगती है ।
हमें विचार करना चाहिए कि हमारे गुरु विशिष्ट व्रत नियमों का पालन करने वाले हैं तथा भगवान् के बताये मार्ग पर चलने वाले हैं उनकी साधना राग-द्वेष को जीतने के लिए होती है अतः उनसे अन्य को विशिष्ट मानना भूल है ।
(३) विचिकित्सा-धर्म के फल में सन्देह करना विचिकित्सा दोष है । हम धर्म करते हैं, लेकिन जब उसका प्रत्यक्ष फल नजर नहीं आता तो फल में सन्देह होने लगता है कि क्या पता इस तपस्या, विरति एवं धार्मिक क्रिया-कलापों का कोई फल मिलेगा या नहीं ?
कोई व्यक्ति खूब सामायिक, प्रतिक्रमण, उपवास - पौषध आदि क्रियाएं करता है, वर्षों तक करता रहता है, लेकिन जब वह वर्तमान जीवन में देखता है कि वह जो चाहता है वह नहीं मिल रहा है, जैसे धनादि का लाभ, मान-सम्मान, पुत्रादि की प्राप्ति, आरोग्य आदि, तो उसे लगने लगता है कि यह सब बेकार है । उसे सन्देह होने लगता है कि आगे भी इनका फल मिलेगा या नहीं ।
यहां यह विचार करना चाहिए कि धर्म का भौतिक वस्तुओं से कोई संबंध नहीं है। धर्म करते समय हम जिन वस्तुओं को छोड़ते हैं उनको फल रूप में चाहना उपयुक्त नहीं है । धर्म तो सुख और शांति प्रदान करने वाला है। धर्म का फल तो तुरन्त मिलता है । यदि हम क्रोध छोड़ते हैं तो शान्ति उसी क्षण मिलती है । अतः धर्म के फल में सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं रहती ।
साधुओं के मलिन वस्त्र देखकर उनसे घृणा करना भी विचिकित्सा के अन्तर्गत आता है। हमारे साधु छह काया के रखवाले होने के कारण बाहरी रंग-रूप, वस्त्र आदि पर ध्यान न देकर अपनी आत्मसाधना पर ही ध्यान केन्द्रित रखते हैं । अतः उनके बाहरी रूप-वस्त्रादि को देखकर घृणा करना ठीक नहीं है । श्रमणों का जीवन लोककल्याण के लिए होता है । वे भटके हुए अनेक मानवों को सन्मार्ग दिखाते हैं अतः हमें उनके गुणों की ओर दृष्टि रखनी चाहिए। बाहर के स्थान पर अन्तर की ओर झांकना चाहिए ।
(४) परपाषंड - प्रशंसा - मिथ्यामति व जिनधर्म के विपरीत प्रचारकों की प्रशंसा करना परपाषंड प्रशंसा कहलाता है। कुछ अजैन अपने जप-तप, साधना एवं विशिष्ट वक्तृत्व-शैली के कारण सामान्य मनुष्यों से अधिक विशेषता वाले होते हैं तथा अपना अधिकांश समय जनता की सेवा में बिताते हैं । वे विभिन्न चमत्कार दिखा कर आम जनता को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। उनका रहन-सहन खान-पान, आचार-विचार और जीवन-चर्या लौकिक दृष्टि से अनुकरणीय होती है जिससे विरोधी पक्ष भी उनका आदर-सत्कार करने लगता है। कई जैन भाई भी उनकी प्रशंसा करने
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