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जिनवाणी-विशेषाङ्क लेकिन अभव्य, दर्भव्य उस गांठ को भेद नहीं पाते हैं व वापस मिथ्यात्व के भीषण जंगल में भटक जाते है। ग्रंथिदेश तक पहुंचा हुआ भव्य जीव परिणामों की निर्मलता बढ़ाता हुआ अपूर्वकरण करके ग्रंथि भेद करता है अर्थात् अनन्तकाल की दुर्भेद्य अनन्तानुबन्धी कषाय की गांठ तोड़ देता है। इसके बाद परिणामों की निर्मलता बढ़ाता हुआ जीव अनिवृत्तिकरण करता है। इसके फलस्वरूप वह सम्यक्त्व प्राप्त किए बिना निवृत्त नहीं होता। अनिवृत्तिकरण के भी अनेक भेद हैं। उसके अंतिम भेद में विचारों की बढ़ती निर्मलधारा के कारण वह अनिवृत्तिकरण से आगे बढ़ कर सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है। यह बात यहां स्पष्ट करना आवश्यक है कि अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय तक मिथ्यात्व का उदय रहता है। अनिवृत्तिकरण के अनेक भेदों में से अंतिम भेद में अन्तरकरण क्रिया करता है। (अन्तरकरण क्रिया का आशय है कि अभी जो मिथ्यात्व मोहनीय के कर्मदलिक उदयमान हैं उन दलिकों को जो कि अनिवृत्तिकरण के बाद अंतर्मुहूर्त तक उदय में आने वाले हैं, आगे पीछे कर लेना अर्थात् अंतर्मुहूर्त तक मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के जितने दलिक उदय में आने वाले हों, उनमें से कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के अंतिम समय तक उदय में आने वाले दलिकों में स्थापित करना और कुछ दलिकों को अनिवृत्तिकरण के बाद के अन्तर्मुहूर्त में उदय में आने वाले दलिकों के साथ मिलाना) अन्तरकरण क्रिया के बाद उस जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, समकित प्राप्त करने पर उस जीव को ऐसा अपूर्व आनन्द आता है जैसा कि किसी असाध्य रोगी को पूर्ण नीरोग होने पर आनन्द का अनुभव होता है। सम्यक्त्व के प्रकार
सम्यक्त्व के ३, ५, १२ आदि . भेद बताये हैं, लेकिन मुख्यतः तीन भेद होते हैं-(१) औपर्शामक, (२) क्षायोषशमिक व (३) क्षायिक। औपशमिक समकित में अनन्तान्बन्धी चतुष्क (अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ) व दर्शनत्रिक (मिथ्यात्व, मिश्र व समकित मोहनीय) का उपशम हो जाता है। जैसे अग्नि राख से ढकी होने पर ताप बिल्कुल नहीं लगता है, इसी प्रकार इस समकित में उक्त सात प्रकृतियों का प्रदेशोदय भी नहीं रहता है। यह समकित एक भव में जघन्य एक बार उत्कृष्ट दो बार व अनेक भवों की अपेक्षा जघन्य दो बार उत्कृष्ट पाँच बार प्राप्त हो सकती है। क्षायोपशमिक समकित में जीव उदय-प्राप्त मिथ्यात्व के कर्म दलिकों को तो क्षय कर देता है व सत्ता में रहे हुये अनुदय दलिकों को उपशान्त कर देता है, उनका प्रदेशोदय मात्र रहता है। इस समकित में समकित मोहनीय का उदय रहता है । यह समकित एक भव में जघन्य एक बार उत्कृष्ट पृथक्त्व हजार बार व अनेक भवों की अपेक्षा जघन्य दो बार उत्कृष्ट असंख्याता बार प्राप्त हो सकती है। क्षायिक समकित में अनन्तानुबन्धी कषाय व दर्शनत्रिक की सत्ता नहीं रहती है। क्षायिक समकित आने के बाद कभी नहीं जाती है। सिद्धावस्था में भी क्षायिक समकित विद्यमान रहती है। अगर जीवन में पहले अगले भव के आयु का बन्ध नहीं किया हो व क्षायिक समकित प्राप्त हो जावे तो वह उसी भव में नियम से मोक्ष प्राप्त करता है। क्षायिक समकित के पूर्व आयु का बन्ध हो गया हो तो वह जघन्य तीन भव (इस भव को मिलाकर) उत्कृष्ट चार भव (इस भव सहित) में अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है।
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