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जिनवाणी-विशेषाङ्क १. साधना के क्षेत्र में श्रद्धा की आवश्यकता होती है, श्रद्धा के बिना प्रगति संभव ही नहीं। 'संशयात्मा विनश्यति ।' यदि हमें विश्वास न हो कि फलां मार्ग हमें गन्तव्य को पहंचायेगा तो गन्तव्य को जानने पर भी हम पथ-विचलित होंगे। . २. आस्था एवं विश्वास हमारे सामाजिक जीवन के मूलाधार हैं। पारस्परिक विश्वास नहीं रहने से परिवार टूटता है, समाज टूटता है, भय और आशंका बनी रहती है। 'कामायनी' में आहत मनु के सिराहने बैठकर श्रद्धा तो मनु को कह रही है
'मनु तुम श्रद्धा को क्यों गये भूल?' ___३. आत्मिक शांति के लिए श्रद्धा और विश्वास जरूरी है। तर्क उपयोगी है; उससे हम किसी को चुप तो कर सकते हैं, लेकिन आंतरिक अवबोध नहीं दे सकते हैं। फिर तर्क की एक सीमा होती है । 'सभी चीजों का तर्क है इसका कोई तर्क नहीं, मात्र तर्क में हमारी आस्था है। यानी तर्क का भी आचार अन्ततोगत्वा आस्था ही है। इसलिये यदि हम यह पूछते जाये कि 'इसका क्या तर्क है ?' 'ततः किम्?' तो हमें शांति नहीं मिल सकती है। अतः हमें एक अधिष्ठान चाहिये। चाहे उसे हम परमात्मा कहें या वीतराग देव कहें या शुद्ध आत्मा मानें।
यह आस्था चाहे तो किसी परमप्रभु के प्रति हो या किसी परानियम के प्रति । . लेकिन जब मनुष्य उस पर अटल विश्वास रखकर कुछ करता है तो उसको अपार शक्ति मिलती है। ट्रेन में हम ड्राइवर पर विश्वास करके सो जाते हैं। अगर ऐसी आस्था उस परानियम या परमप्रभु पर हो जाय तो मानव को दुःख हो ही नहीं सकता। वह सुख से जी सकेगा और निश्चित होकर मर भी सकेगा। आनन्दघन ने ठीक ही कहा है
। 'सुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी।
छार पर लीपनो तेह जानो रे।' - यानी बिना श्रद्धा के क्रिया राख पर लीपने के समान व्यर्थ है। अनास्थावान् व्यक्ति जब गंगा में स्नान करता है तो केवल उसका शरीर शुद्ध होता है, लेकिन आस्थावान् का शरीर तो साफ होता ही है उसका मन निर्मल तथा हृदय एवं आत्मा उद्बुद्ध होती है। इसलिए श्रद्धा मात्र पारलौकिक एवं अमूर्त चीज नहीं, वह तो उपयोगी तत्त्व है।
जैन परम्परा में ऐसे परम तत्त्वों पर श्रद्धा रखना ही सम्यक् दर्शन है। जिस तरह ब्रह्म या ईश्वर, अल्लाह या खुदा पर कोई तर्क संभव नहीं है, उसी प्रकार जैन दर्शन के मूल तत्त्वों पर संशय से प्रारंभ करना ही गलत है। वे तत्त्व कौन-कौन से हैं? आत्म-अनात्म आदि । अज्ञान के कारण आत्मबुद्धि से हम विलग होते हैं, राग-ममता का सृजन होता है। फिर तो आत्म-बुद्धि समाप्त हो जाती है। इस अर्थ में यदि हम देखें तो सम्यक्-दर्शन एवं सम्यक्-ज्ञान में बहुत कम अन्तर रहता है। दुःखों से स्थायी छुटकारा पाने के लिए सबसे प्रथम दृढ़ श्रद्धा आवश्यक है।
एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सके संजोगलक्खणा ।।-नियमसार, १०२. शरीर को ही आत्मा मान लेने का जो मिथ्याभाव हो रहा हैं, उसे दूर करके
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