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सम्यग्दर्शन के भेद एवं प्रकार
___ चांदमल कर्णावट शिक्षाविद् प्रो. चांदमल कर्णावट जैन धर्म-दर्शन के कुशल अध्यापक हैं। आपने सम्यग्दर्शन के भेद एवं प्रकारों का प्रस्तुत लेख में संक्षिप्त विवेचन किया है।-सम्पादक
'सम्यग्दर्शन' जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है-सम्यक श्रद्धा अथवा वस्तु के यथार्थ स्वरूप पर सम्यक् विश्वास । सम्यग्दर्शन साधना का मूल आधार है। 'दंसणमूलो धम्मो' अर्थात् दर्शन धर्म का मूल है और 'नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा', सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं होता और सम्यक् दर्शन व ज्ञान के अभाव में सम्यक् चारित्र की प्राप्ति संभव नहीं है।
सम्यग्दर्शन की परिभाषा प्रभु महावीर ने अपने अंतिम उपदेश में उत्तराध्ययन सूत्र के २८वें अध्ययन में इस प्रकार दी है
तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं ।
भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं । अर्थात् जीव-अजीवादि तत्त्वों का स्वरूप स्वभाव से या उपदेश से जानकर उन पर भावपूर्वक श्रद्धा करना ही सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन है। सर्वज्ञों के वचन पूर्ण विश्वसनीय हैं, श्रद्धेय हैं, क्योंकि राग-द्वेष के विजेता होने से वे वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ही कथन करते हैं ।।
जीवादि नवतत्त्वों में जीव एवं अजीव ये दो तत्त्व ही प्रमुख हैं, शेष सात सत्त्व इन्हीं का परिणाम हैं। जीव को चेतनामय और अजीव को अजीव या चेतनारहित जड़ जानना-मानना ही सम्यग्दर्शन है। जड़ पदार्थों में आसक्त होकर अपने चेतन स्वरूप को विस्मृत कर देना और जड़ पदार्थों में चेतनाबुद्धि बन जाना गंतव्य के विपरीत दिशा है जिसमें अग्रसर होने से मुक्ति कभी संभव नहीं। तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वाति ने भी 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' कहकर जीवादि तत्त्वों में यथार्थश्रद्धान को ही सम्यक् दर्शन माना है। जड़ पदार्थों की नश्वरता और आत्मतत्त्व की अजरता अमरता का बोध होने पर उस पर पूर्ण श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है।
यह वीतराग वाणी की ही विशेषता है कि जहाँ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अनंतानुबंधी क्रोधादि ७ प्रकृतियों के क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम से मानी गई है। अत्यन्त मोहमूढ़ आत्मा को यह यथार्थदृष्टि नहीं रहती। सम्यग्दर्शन का यह गुण बाहर से प्राप्त न होकर अंतर्हृदय से प्रकट होता है । सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में परम सहायक हैं। सम्यग्दर्शन के भेद एवं प्रकार
सम्यग्दर्शन के प्रमुख ५ भेद बताए गए हैं-(१) सास्वादन (२) क्षायोपशमिक (३)औपशमिक (४) वेदक एवं (५) क्षायिक सम्यक्त्व। इनमें से प्रत्येक की व्याख्या
आगे की जा रही है* सेवानिवृत्त आचार्य,शिक्षा एवं प्रमुख धर्म-शिक्षक
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