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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन
आत्मतत्त्व को अच्छी तरह जानकर उससे विचलित न होना मुक्ति की प्राप्ति का उपाय हैं
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'विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् ।
यत्तस्माद् विचलनं स एव पुरुषार्थसिध्युपायोऽयम् ॥ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १५ जिस प्रकार नाव कौ ठीक दिशा मैं ले जाना खेने वालों के हाथ में नहीं होता, किन्तु नाव के पीछे लगे हुए डांड के संचालन करने वाले मनुष्य के हाथों में होता है, उसी प्रकार प्रारंभ में मनुष्य की श्रद्धामयी तत्त्वदृष्टि ही उसके जीवन को सही ढंग से संचालित करती । अतः सम्यक्दर्शन के बिना सम्यंक् ज्ञान या चारित्र संभव ही नहीं है 1
सम्यक्दर्शी को अपने ज्ञान, तप आतिथ्य, बल, ऐश्वर्य, कुल, जाति और सौंदर्य आदि का मद नहीं करना चाहिए ।
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परम पुरुषार्थ या
इस दृष्टि से हम विचार करें तो स्पष्ट होगा कि सम्यक् दर्शन में भक्ति-तत्त्व की प्रधानता अवश्य है लेकिन ज्ञान तत्त्व भी विद्यमान है। यदि तत्त्वों का ज्ञान ही नहीं होगा तो श्रद्धा किस पर होगी ? धर्म तो सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र तीनों है सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वराः विदुः ।
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यदीयप्रत्ययनीकानि भवति भवपद्धतिः ॥ - रत्नकण्डक श्रावकाचार, ३ इसीलिए उमास्वामीजी ने तीनों को मोक्ष मार्ग बताया है । किन्तु प्रथम तो श्रद्धा या सम्यक् दर्शन ही है ।
- निदेशक, गांधी विद्या संस्थान, राजघाट, वाराणसी- २२१००१
सच्ची राह
• एक मनुष्य किसी देवालय में प्रतिदिन दीपक रखा करता था । ऐसा करते-करते उसे कई दिन हो चुके थे । अकस्मात् एक दिन किसी सम्यक्त्वी पुरुष के साथ उसकी भेंट हो गई । सारी बात सुनकर उस सम्यक्त्वी ने उस भूले हुए प्राणी को उपदेश दिया और जिन प्ररूपित धर्ममार्ग का दिग्दर्शन कराया। उसने सच्चे देव के स्वरूप को भलीभाँति विवेचन करके समझाया । उसके विवेचन को सुनने से उस भावुक प्राणी के हृदय में सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हो गई । उसी दिन से उसने दीपक जलाना बंद कर दिया और धर्मध्यान में तत्पर रहने लगा ।
संयोग की बात ! कुछ दिनों बाद दैववशात् उसके बच्चे वगैरह बीमार हो गए। तब कई लोगों ने उसे बहुत बुरा भला कहा और यह भी कहा कि यह सब देवालय में दीपक न जलाने का ही फल है, अगर अब भी अक्ल ठिकाने न आई तो अभी ओर मजे चखने होंगे । अभिप्राय यह है कि उस बेचारे को लोगों ने बहुत परेशान किया और भरसक चेष्टा की कि वह पभविचलित हो जाय; किन्तु अब वह सच्चे देव का परमोपासक था। कोई भी उसे पथभ्रष्ट न कर सका । उसके चित्त में क्षण भर के लिए भी दुर्बलता उत्पन्न नहीं हुई । सब लोग हार मान कर बैठ गए और सत्य की विजय हुई। उसके बाल बच्चे स्वस्थ हो गए। कहने का मतलब यह है कि वह व्यक्ति अपनी सच्ची श्रद्धा पर अटल रहा। उसने अपनी आत्मा का उद्धार करते हुए कई प्राणियों को सच्ची राह दिखलाई ।
भाइयों ! अज्ञानी प्राणी कई प्रकार के बहमों के शिकार हो रहे हैं। किसी के शरीर में थोड़ी सी बाधा-पीड़ा उत्पन्न हुई नहीं कि वे उसे दैवी बाधा समझने लगते हैं । कोई भूत-प्रेत की करामात मानकर बीमारों का ठीक-ठीक इलाज नहीं करवाते और फिर उसका अनिष्ट परिणाम भोगते हैं । मगर जब तक पुण्य सिकन्दर है तब तक किसी भी देवी-देवता, भूत-प्रेत आदि का जोर नहीं चल सकता । -श्री चौथमल जी म.सा.
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