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तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा में सम्यग्दर्शन का स्वरूप
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Xxx डॉ. यशोधरा वाधवाणी शाह
डॉ. (श्रीमती) वाधवानी ने तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी विभिन्न टीकाओं का आधार लेकर सम्यग्दर्शन का इस लेख में गम्भीर दार्शनिक विवेचन किया है। डॉ. वाधवानी का यह लेख जिज्ञासु पाठकों के लिए अतीव उपयोगी है। इसमें तत्त्वार्थभाष्य, सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एवं तत्त्वार्थवृत्ति का मुख्यत: उपयोग किया गया है । - सम्पादक
यह बात तो सर्वविदित है कि ब्राह्मण धर्म की कर्मकांड - बहुलता तथा जीव हिंसा के विरोध में ईसवीय सन् से अनेक सहस्र पूर्व भारत में अहिंसावादी जैन परंपरा का उदय हुआ, और एक के बाद एक २४ तीर्थंकरों ने तत्तत्कालीन 'प्राकृत' लोकभाषाओं के माध्यम से इस दिशा में जनता का उद्बोधन किया, जो अधिकतर प्रश्नोत्तर रूप में होता था। अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के पश्चात् गणधरों ने अपनी स्मरणशक्ति के आधार पर उन सारे उपदेशों को आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग आदि सूत्रग्रन्थों में संकलित किया। इन्हीं 'अंगप्रविष्ट' धर्मग्रन्थों को अब 'जैन आगम' कहा जाता है। परन्तु इन प्राकृत आगमों से जैन तत्त्वदर्शन के सिद्धान्तों का नियमबद्ध, तर्कप्रतिष्ठ, निःसंशय बोध नहीं हो पाता था । उन्हें वैसे रूप में व्यवस्थित करके, अन्य भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों के समकक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास जैन परंपरा में सबसे पहले ई. १०० के आसपास तत्त्वार्थसूत्र नामक संस्कृत - ग्रन्थ में दृग्गोचर होता है ।
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समग्र जैन साहित्य में संस्कृत की धारा को शुरू करने वाला यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र लघुकाय है, तथापि अपने प्रतिपाद्य तात्त्विक विषय की विवेचना एवं संकलना सूत्रशैली में ऐसी उत्तम कुशलता से करता है कि जैन परंपरा के सभी संप्रदायों में इसे समान आदर से अपनाया जाता रहा है । केवल एक दार्शनिक ग्रन्थ के रूप में ही नहीं, अपितु आध्यात्मिक शिक्षा के मूलग्रंथ के रूप में भी । किं बहुना, जो मूर्धन्य स्थान मुसलमानों में कुरान को, ईसाइयों में बाईबल को एवं वैदिक परम्परा में भगवद्गीता को प्राप्त है, वही जैन परंपरा में तत्त्वार्थसूत्र का माना गया है । '
ऐसे इस उत्तम प्रमाणभूत ग्रंथ के महान् रचयिता के बारे में विवाद हो, यह स्वाभाविक तो है, पर दुर्भाग्यपूर्ण भी। उत्तर भारत एवं श्वेतांबर जैन सम्प्रदाय में उनका नाम 'वाचक' परंपरा का 'आचार्य उमास्वाति' माना जाता है और उन्हीं को तत्त्वार्थसूत्र का भी कर्ता माना जाता है । परन्तु दक्षिण भारत एवं दिगंबर जैन संप्रदाय में उनका नाम 'उमास्वामी' बताते हुए, इन्हें आचार्य कुन्दकुन्द का शिष्य गिनाया जाता है । और उन दिगंबर गुरु की तरह उनके नाम के साथ भी (वाचक की बजाय ) 'गृद्धपिच्छ' उपनाम जोड़ा जाता है । उमास्वाति का इस सूत्र पर स्वोपज्ञ भाष्य भी है। करीब विक्रम की ५वीं (या ८वी) शती में श्वेताम्बर आचार्य श्री सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थभाष्य पर अपनी 'टीका' लिखी, तो दिगम्बर आचार्य पूज्यपाद देवनंदी ने तत्वार्थसूत्र पर 'सर्वार्थसिद्धि' नामक वृत्ति स्वतंत्र रूप में लिखी । इसी पर विक्रम की ९वीं शती के आचार्य अकलंकदेव ने राजवार्त्तिक और ८वीं शती के आचार्य
* सहायक सम्पादक, संस्कृत महाशब्दकोश, डेकन कॉलेज, पूना
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