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त्रिरत्न में सम्यग्दर्शन का स्थान
- डॉ. सुदर्शन लाल जैन - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को सम्मिलित रूप से जैनदर्शन में 'त्रिरत्न' शब्द से कहा जाता है। जैसे लौकिक जीवन में 'रत्नों' का महत्त्व है वैसे ही आध्यात्मिक जगत् में रत्नवत् बहुमूल्य होने से सम्यग्दर्शनादि को रत्न कहा गया है। ये केवल आध्यात्मिक जीवन के लिए ही उपयोगी नहीं हैं, अपितु लौकिक जीवन में भी इनकी गुणवत्ता असंदिग्ध है।
जैन आगमों में कहीं सम्यग्दर्शन की, कहीं सम्यग्ज्ञान की और कहीं सम्यकचारित्र की महत्ता बतलाई गई है। परन्तु इतना निश्चित है कि इनमें से किसी का भी महत्त्व कम नहीं है। इसीलिए आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' (१.१) सूत्र में 'मार्गः' एकवचन का प्रयोग करके तीनों को समान महत्त्व दिया है और स्पष्ट किया है कि जब तक ये तीनों युगपत् नहीं होंगे तब तक मोक्षमार्ग नहीं बनेगा। ये पृथक्-पृथक् कार्यकारी (मोक्षप्रदाता) नहीं हैं। जैनेतर ग्रन्थों में जहाँ कहीं भी किसी एक से मुक्तिलाभ की चर्चा की गई है वहाँ उसके महत्त्व का प्रदर्शन मात्र है। वास्तव में जहाँ सच्ची श्रद्धा या आत्म बोध होता है वहाँ सच्चा ज्ञान और सदाचार भी होता है। इसी तरह जहाँ सच्चा ज्ञान होता है वहाँ सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र भी होता है। सम्यक्चारित्र तो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के बिना हो ही नहीं सकता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान यद्यपि एक साथ होते हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता है और सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्र सम्यक् नहीं हो सकता है। अतः सम्यग्दर्शन को उत्कृष्ट कहा है
सम्मविणा सण्णाणं सच्चारितं ण होदि णियमेण।
तो रयणत्तयमझे सम्मगुणुक्किट्ठमिदि जिणुटुिं ।-रयणसार, ४६ “सम्यग्दर्शन के बिना नियम से सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं होते। इसीलिए रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन उत्कृष्ट है' ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है।
सम्यग्दर्शन विहीन धर्म, चारित्र, ज्ञान, तप आदि सब निरर्थक तथा अकिञ्चित्कर है, सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) सहित होने पर वे सभी यथार्थता को प्राप्त होते हैं। सम्यग्दर्शन रत्नत्रय का सार है, सुखनिधान है तथा मोक्षप्राप्ति का प्रथम सोपान है। जैसा कि कहा है
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण ।
सारं गणरयणत्तयसोवाणं पढममोक्खस्स ॥-दर्शनपाहद २१ ___ इसी तरह पूज्यपाद स्वामी ने सम्यग्दर्शन की पूज्यता बतलाते हुए ज्ञान और चारित्र के सम्यक्पने का उसे हेतु बतलाया है, 'अल्पान्तरादभ्यर्हितं पूर्वं निपतति। कथमभ्यर्हितत्वम्? ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात्।' (सर्वार्थसिद्धि, १.१) पंचाध्यायी में कवि राजमल्ल जी ने रत्नत्रय को धर्म बतलाते हुए स्पष्ट कहा है कि सम्यग्दर्शन के बिना न तो गृहस्थधर्म संभव है और न मुनिधर्म । सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के सम्यक्पने का एकमात्र कारण है सम्यग्दर्शन* मन्त्री, अ.भा. दिग. जैन विद्वत्परिषद् , वाराणसी एवं अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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