________________
सम्यग्दर्शन: स्वरूप एवं लक्षण
___n कु. शकुन्तला जैन 'सम्यग्दर्शन' धर्म का मूल है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'सम्यग्दर्शन' को धर्म का मूल माना है। सम्यग्दर्शन सब गुणों का तथा रत्नत्रय का सार है। वह मोक्ष की पहली सीढ़ी है। उमास्वाति की सूत्ररूप घोषणा है-'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र की एकात्मकता ही मोक्ष का मार्ग है। मोक्ष आत्महित है, मोक्ष शाश्वत-अविनाशी सुख है। मोक्ष-प्राप्ति में रत्नत्रय प्रधान कारण है और रत्नत्रय में भी सम्यग्दर्शन प्रधान है।
आचार्य समन्तभद्र ने अपने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' नामक ग्रंथ में सम्यग्दर्शन का वर्णन किया है। मोक्षमार्ग में इसका महत्त्व बताते हुए कहा है कि जैसे बीज के अभाव में वृक्ष नहीं होता वैसे ही सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती। तीनों कालों व तीनों लोकों में प्राणियों हेतु सम्यग्दर्शन के समान कोई कल्याणकारी नहीं है। साथ ही मिथ्यात्व के समान कोई अकल्याणकारी नहीं है। जिनेन्द्र का भक्त सम्यग्दृष्टि भव्यजीव, चक्रवर्ती पद को और समस्त लोक को तिरस्कृत करने वाले तीर्थंकर पद को प्राप्त करके अंत में मोक्ष प्राप्त करता है।
नगर में जिस प्रकार द्वार की प्रधानता होती है, मुख में जिस प्रकार चक्षु प्रधान तथा वृक्ष में जिस प्रकार मूल प्रधान है उसी प्रकार ज्ञान, चारित्र, तप व वीर्य में सम्यग्दर्शन प्रधान है, क्योंकि दर्शन से भ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है और दर्शन-भ्रष्ट को निर्वाण प्राप्त नहीं होता। जिस प्रकार से तारों मे चन्द्र व पशुओं में सिंह प्रधान है उसी प्रकार मुनि व श्रावक धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना ज्ञान व चारित्र भी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं होते। अतः रत्नत्रय में सम्यक्त्व ही प्रधान है।
जैनागमों में चारों अनुयोगों (प्रथमानयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, करणानुयोग) की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के लक्षण प्रतिपादित किये गए हैं। आर्षवाणी में परमार्थ देव-शास्त्र-गुरु की शंका आदि पच्चीस दोष रहित श्रद्धा करना, दृढ़ प्रतीति करना सम्यग्दर्शन कहा है। द्रव्यानुयोग की दृष्टि से 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शग्म्' अर्थात् जीवादि नव पदार्थों का जैसा स्वरूप कहा गया है, वैसा ही श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। करणानुयोग की अपेक्षा दर्शनमोहनीय की तीन तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम व क्षय से उत्पन्न होने वाली श्रद्धागुण की निर्मल परिणति को सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इसके स्वरूप का परिज्ञान अनेकान्तात्मक वस्तु के स्वरूपज्ञान से होता है। चारित्ररूप धर्म रत्नत्रय का ही रूपान्तर है। इस धर्म का मूल स्तम्भ सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान व चारित्र सम्यक् नहीं कहे जा सकते।
सम्यग्दर्शन के संबंध में जैनाचार्यों ने अलग-अलग ढंग से अपने मत प्रकट किये उपर्युक्त चार अनुयोगों के नाम दिगम्बर मतानुसार हैं। श्वेताम्बर परम्परा में इनके नाम हैं-१. द्रव्यानुयोग २.चरणकरणानुयोग ३. गणितानुयोग और ४.धर्मकथानुयोग।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org