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जिनवाणी- विशेषाङ्क
समकित धर्म रूपी आभूषण की पेटी है । समकित धर्म रूपी किराना की दुकान है 1 समकित धर्म रूपी भोजन का थाल है ।
यानी सम्यक्त्व धर्म का आधार है। बिना सम्यक्त्व के धर्म नहीं टिक सकता ।
सम्यक्त्व के पांच लक्षण - शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था हैं । सम्यक्त्व होने पर जो गुण अवश्य पाये जाते हैं, वे लक्षण कहलाते हैं । सम्यक्त्वी को गुण निखारते हैं I
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(ज) कर्मग्रन्थ भाग - ३, गाथा २-३
सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने पर सम्यक्त्वी जीव सात बोलों का बन्धन नहीं करता, जिनमें वह स्त्री और नपुंसकवेद का बंध नहीं करता तथा नारकी, तिर्यञ्च, भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों की आयु नहीं बांधता ।
७. उपसंहार
उपर्युक्त बिन्दु षष्ठ के निरीक्षण-परीक्षण से स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र, सम्यक् तप और धर्म नहीं होता है, तो फिर मोक्ष और निर्वाण-प्राप्ति जो प्रत्येक मुमुक्षु का ध्येय है, आकाश में कुसुमवत् असंभव है । अतः प्रत्येक मोक्षार्थी के लिये अनिवार्य है कि वह सम्यक् दर्शन जिसकी प्राप्ति परम दुर्लभ है (सद्धा परमदुल्लहा - उत्तरा० ३.९) जो कि सब रत्नों में अद्वितीय रत्न है, सब मित्रों में श्रेष्ठ मित्र है, की उपलब्धि करके अनन्त अक्षय सुखों का भागीदार बने ।
उपर्युक्त लेखन में कोई आगम विपरीत तथ्य लिखने में आया हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
आगम-सन्दर्भ
नोट - आगम- सन्दर्भ ब्यावर से प्रकाशित शास्त्रों के हैं । १. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । - तत्त्वार्थसूत्र १ / २
२. अरिहंतो महद्देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिणपण्णत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं ॥ परमत्थसंथवो वा सुदिट्ठपरमत्थ सेवणा वा वि ।
वावण्ण कुदंसणवज्जणा, य सम्मत्तसद्दहणा यं ॥ - आवश्यकसूत्र, पृष्ठ ८८
३. इअ सम्मत्तस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा ते आलोउं संखा, कंखा, वितिगिच्छा, परपासंडपसंसा, परपासंडसंथवो। आवश्यकसूत्र, पृष्ठ ८९ ४. कुप्पवयणपाखंडी, सव्वे उम्मग्गपट्ठिया ।
मक्खियं एस मग्गो हि उत्तमो । - उत्तरा० २३/६३
५. जीवाजीवा य बन्धो य पुण्णं पावासवो तहा ।
संवरो निज्जरा मोक्खो, सन्ते ए तहिया नव । - उत्तरा० २८/१४
६. तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं ।
भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥ - उत्तरा० २८ / १५ ७. तहारूवं समणं वा माहणं वा जाव पडिला भेमाणे किं चयति ?
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