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जिनवाणी-विशेषाङ्क
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का श्रद्धान करने से कुदेव का श्रद्धान दूर होता है। अतः 'आप्त' आदि के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है । अर्हन्त देव आदि का श्रद्धान होने पर, 'सम्यक्त्व' हो भी सकता है, और नहीं भी । लेकिन अर्हन्त आदि का यथार्थ श्रद्धान हुए बिना, सम्यक् दर्शन कभी नहीं हो सकता। एक सम्यग्दृष्टि जीव को जैसा श्रद्धान होता है, वैसा श्रद्धान- मिथ्यादृष्टि जीव को कभी नहीं होता। क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीव मोहवश श्रद्धान नहीं करता है । यथार्थ श्रद्धान वास्तव में तब होता है जब वह अरिहंत आदि के यथार्थ स्वरूप की पहचान कर लेता है। जिसे अरिहंत देव आदि के यथार्थ स्वरूप की पहचान है, उसे जीव आदि तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की पहचान होती है ।
अरिहंत में बारह गुण माने गये हैं और इनका ज्ञान तत्त्वश्रद्धान के बिना नहीं हो पाता । जिसे जीव- अजीव आदि तत्त्वों का श्रद्धान नहीं है, उसे अरिहन्त आदि के बारे में सच्चा श्रद्धान नहीं हो सकता । 'तत्त्वश्रद्धान' में जीव- अजीव के प्रति जो श्रद्धान होता है, उसका उद्देश्य- 'स्व और पर का भिन्न श्रद्धान होना' होता है । आस्रव आदि के श्रद्धान का उद्देश्य राग आदि को छोड़ना होता है । अतः तत्त्वश्रद्धान का प्रमुख उद्देश्य होता है-'स्व' और 'पर' का भिन्न श्रद्धान । अर्थात् 'अपने आपको सही रूप में पहचानना ।' इस पहचान या आत्म- श्रद्धान को ही 'सम्यक्त्व' कहा गया है ।
जिस 'सम्यक्त्व' की साधना को परम लक्ष्य मानकर, उसे धर्म का मूल कहा गया । वह ‘सम्यक्त्व’ वीतराग चारित्र का अविनाभूत होता है । वही निश्चय सम्यक्त्व है । सम्यग्दर्शन सब रत्नों में महारल, सब योगों में उत्तमयोग है, सब ऋद्धियों में महाऋद्धि है और सभी प्रकार की सिद्धि करने वाला है
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संदर्भ-ग्रंथ
१. आचार्य धर्मसागर अभिनन्दनग्रंथ-लेखमाला, धर्म, दर्शन एवं सिद्धांत, पृ. २५९, कलकत्ता १९८१-८२
२. तत्त्वार्थसूत्र १/२,४
३. उत्तराध्ययनसूत्र २८ / १४
४. धर्म-दर्शन-मनन और चिंतन, आचार्य देवेन्द्र मुनि, पृ. १४४-१४५, उदयपुर
५. समयसार, १४४
६. समयसार, तात्पर्याख्यावृत्ति ३८, १५५, ३१४, ३१५
७. धर्म-दर्शन-मनन और चिंतन, आचार्य देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृ. १४६ ४८, उदयपुर १९८५
५९, श्रीकृष्ण कालोनी, अंकपात मार्ग, उज्जैन (म.प्र.)
संवेग और निर्वेद
संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चितः ।
धर्मेष्वनुरागो वा प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ॥
धर्म में और धर्म के फल में आत्मा का परम उत्साह होना, समान धर्म वालों में
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अनुराग होना अथवा परमेष्ठियों के प्रति प्रीति होना संवेग है ।
संवेगो विधिरूपः स्यान्निर्वेदश्च निषेधनात् ।
संवेग विधिरूप होता है और निर्वेद निषेधरूप होता है। निर्वेद में संसार से वैराग्य होता है ।
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