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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन
का आचरण नहीं करता ।
आचारांग-३.४.१२९–सड्ढी आणाए मेहावी - वीतराग की आज्ञा में रुचिवान् (श्रद्धालु) मेधावी है।
आचारांग-५.५.१६९- जो साधक निर्दोष हृदय से किसी वस्तु को सम्यक् मान रहा है, वह वस्तु केवलज्ञानियों की दृष्टि में यद्यपि असम्यक् है तथापि उसके सम्यक् पर्यालोचन के कारण उसको उसका सम्यक् परिणमन होता है ।
आचारांग-५.५.२०९-सम्मियाए धम्मे आरिएहिं पवेदिते - तीर्थंकरों ने समभाव (सम्यक् दर्शन) में धर्म कहा है । ११
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(ग) सूत्रकृतांग- ८ / २२ - सम्यक्त्वी का तप कर्मक्षय का हेतु एवं मिथ्यात्वी का तप कर्मबन्ध का कारण है ।
(घ) प्रश्नव्याकरण - २-५-१५५ - सम्मत्तविसुद्धमूलो- सम्यग्दर्शन संवररूप वृक्ष का मूल है ।
(ङ) प्रज्ञापना-पद- १८-१३४३-४४- जो एक बार भी सम्यक्त्व का स्पर्श कर लेता है ( अन्तर्मुहूर्त के लिये भी) उसको अधिकतम अर्धपुद्गल परावर्तन काल में अवश्य मुक्ति का लाभ होगा
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(च) उत्तराध्ययन सूत्र - २८. २९ सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं होता, दर्शन में चारित्र की भजना है | चारित्र और सम्यक्त्व युगपद् हो सकते हैं पर सम्यक्त्व पूर्व में होता है । १३
उत्तरा. २८/३० सम्यक् दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के अभाव में चारित्र नहीं होता । चारित्र के बिना मोक्ष और निर्वाण होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
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उत्तरा. २८/३१ जैसे अंगों से शरीर पूर्ण होता है वैसे ही आठ अंगों (निशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृहंण, स्थिरीकरण, वात्सल्य, प्रभावना) से समकित परिपूर्ण होकर सुशोभित होता है ।
उत्तरा. २९.१ क्षायिक सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर यदि पूर्व में आयु कर्म का बन्ध न हुआ हो तो जीव उसी भव में मोक्ष जाता है अन्यथा तीसरे भव का उल्लंघन नहीं करता । तच्च पुणो भवग्गहणं णाइक्कमई ।
उत्तरा. ३६.२६० जो जिनवचनों में प्रगाढ श्रद्धावान् हैं वे तद्रूप भाव से आचरण करते हैं, वे निर्मल असंक्लिष्ट परिणाम वाले बनकर संसार - परीत्त करते हैं ।
(छ) धर्मसंग्रह अधिकार - २/२२
समकित धर्म रूपी वृक्ष का मूल है।
समकित धर्म रूपी नगर का परकोटा है ।
समकित धर्म रूपी महल की नींव है।
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