________________
६४.........................
जिनवाणी-विशेषाङ्क सम्यक् दर्शन के बिना चारित्र नहीं होता। चारित्र के बिना सम्यक्त्व हो सकता है। सम्यक् दर्शन और चारित्र युगपत् भी होते हैं, किन्तु चारित्र से पूर्व सम्यक् दर्शन का होना आवश्यक है।
सम्यक्दर्शन विहीन व्यक्ति का ज्ञान सम्यक् ज्ञान नहीं होता। सम्यक् ज्ञान के बिना चारित्र गुण की निष्पत्ति नहीं सधती । चारित्रं गुण के बिना कर्मों से छुटकारा नहीं होता और कर्मों से छूटे बिना निर्वाण-सच्चिदानन्द-परम शान्ति नहीं मिलती। दशवैकालिक सूत्र में लिखा है
पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही? किं वा नाहीइ छेय-पावगं ।। जो जीवे वि न याणति, अजीवे वि न याणति । जीवाऽजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहीइ संजमं ।। जो जीवे वि वियाणेइ, अजीवे वि वियाणति । जीवाऽजीवे वियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं ।। जया जीवमजीवे य, दो वि एए वियाई । तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणई ।। जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणई। तया पुण्णं च पावं च, बंधं मोक्खं च जाणई ॥
-दशवकालिक ४/३३, ३५-३८ पहले ज्ञान और फिर दया-अहिंसा, मैत्री, करुणा, आत्मौपम्य आदि आचार-सत्कृत्य सिद्ध होते हैं। __अज्ञानी-सम्यक् ज्ञान रहित पुरुष क्या कर पायेगा? वह श्रेय-कल्याणकारी कार्य और पाप कार्य क्या जानेगा।
'जो जीवों को नहीं जानता, अजीवों को नहीं जानता, जीव-अजीव दोनों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा।
जो जीवों को विशेष रूप से जानता है, उनका सही स्वरूप यथार्थतः समझता है, अजीवों को विशेष रूप से समझता है, वही संयम का तत्त्व समझ पायेगा। ___ मिथ्यात्वी द्वारा जाने-अनजाने जो भी कुछ अच्छा बन पड़ता है, फिर वह क्या है ? इसके समाधान में वाचकमुख्य आचार्य उमास्वाति ने बड़ा मार्मिक विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है
सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ।।-तत्त्वार्थसूत्र ,१.३३ मिथ्यात्वी को सत् एवं असत् का विवेक नहीं होता। वह यथार्थ, अयथार्थ का वस्तुतः अन्तर नहीं जानता। इसलिए संयोग से, इत्तफाक से उसके द्वारा जब कभी भला बन पड़ता है, वह यदृच्छोपलब्ध है। कभी-कभी ऐसा होता है, एक अंधा या दिङ्मूढ़ पुरुष भटकते-भटकते अनजाने ही सही रास्ता पकड़ लेता है, वह यदृच्छोपलब्ध है।
आगे आचार्य ने अपने प्रतिपाद्य के स्पष्टीकरण हेतु 'उन्मत्तवत्' का जो प्रयोग
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org