________________
सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन
७३
1
ज्ञाता से आत्मा, इन दोनों का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो जाने पर मनुष्य पर पदार्थों के छलावे में नहीं आता है। वह स्व-रूप अथवा स्व-भाव में स्थित रहता है । वह शरीर के विनाश और विकास को अपना विनाश एवं विकास नहीं समझता है। न ही पुद्गल के अपकर्ष और उत्कर्ष को भी अपना अपकर्ष एवं उत्कर्ष समझता है । यों तो सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय को गुण एवं आत्मा को गुणी कह कर दोनों को पृथक्-पृथक् रूप से कहा गया है । परन्तु निश्चय दृष्टि से आत्मा ही रत्नत्रय है । आत्मा का विशुद्ध- परिणाम ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र है । जो जीव दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में स्थिर हो रहा है, उसे स्व-समय स्थित कहा जाता है । सम्यग्दृष्टि स्वसमयस्थित होता है। जो पुद्गल एवं कर्म प्रदेशों में स्थित होता है, उसे पर समय स्थित कहा जाता है। इसी प्रकार देव, गुरु और धर्म के प्रति श्रद्धा व्यवहार सम्यग्दर्शन का लक्षण है, परन्तु व्यवहार सम्यग्दर्शन तो साधन है, आलम्बन है आत्मा के विशुद्ध-स्वरूप को उपलब्ध करने का साधन है । इस स्थूल दृष्टिकोण से मानव वहीं अटक कर आगे नहीं बढ़ पाता है । आत्मा को जगाता नहीं है । अतएव यह स्पष्ट है कि वस्तुत: ‘तूं ही तेरा देव है, तूं ही तेरा गुरु है, तू ही तेरा धर्म है।' सारपूर्ण कथन यह है कि 'आत्मन् तू ही तेरा मित्र है । तू ही तेरी सामायिक है, उपासना है । जब साधक व्यवहार दृष्टि की परतों को भेद कर निश्चय दृष्टि की गहराई में झांकता है, तब बाहर की भूमिका को छोड़कर अन्दर की भूमिका पर पहुंचता है। वहां समस्त - विकल्प एवं बन्धन टूट जाते हैं। दृष्टि निर्मल हो जाती है । वह वहां केवल अपने ही अखण्ड विशुद्ध स्वरूप चैतन्य देव को देखता है ।
I
२३
२४
1
वास्तविकता यह है कि शुद्धतम आत्म-स्वरूप ही उसका सच्चा देव है, वही गुरु है और वही धर्म है । निश्चयनय की दृष्टि से शुद्ध आत्मा को ही देव, गुरु एवं धर्म समझना 'सम्यग्दर्शन' है । विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव रूप निज परमात्मा में रुचि सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन का एक लक्षण है-शुद्ध जीवास्तिकाय की रुचि निश्चय सम्यक्त्व है 1 वास्तव में सम्यग्दर्शन का मूलभूत केन्द्र आत्मा है । आत्मा ही निज-स्वरूप है। अतएव एकमात्र आत्मा में, निज स्वरूप में, अभिरुचि, सुप्रतीति और अनुभूति ही यथार्थतः सम्यग्दर्शन है । जिसकी रुचि आत्मा से भिन्न भाव में है, अर्थात् जिसे आत्म-प्रतीति अथवा आत्म-स्वरूप का प्रबोध नहीं है, जो पर स्वरूप को ही निज स्वरूप माने हुए है, देह, इन्द्रिय आदि में ही निजता का बोध रखता है वह आत्मा मिथ्यादृष्टि है। उसका दर्शन मिथ्यादर्शन है । वही संसार का एवं भव-बन्धन का मुख्य हेतु है । जिस प्रकार 'पर घर' में भटकने वाली नारी कुलटा है, उसी प्रकार निजात्मा से भिन्न देहादि पर - पदार्थों में भटकने वाली अनुभूति भी एक तरह से कुलटा अनुभूति है । अनुभूति का कुलटापन ही वास्तव में मिथ्या दर्शन है ।
अनन्त काल से प्राणी 'पर' के प्रति रुचि एवं विश्वास करता आया है । 'स्व' पर उस की अभिरुचि एवं श्रद्धा स्थिर नहीं हुई है । अनन्त काल से शरीर और शरीर से संबंधित भोगों पर, इन्द्रियों तथा इन्द्रिय-विषयों के भोगों पर तथा मन के राग-द्वेष विकल्पों व कलुषित ध्यानों पर रुचि रही है। कुछ आगे बढ़ा तो परिजन एवं परिवार पर श्रद्धा की है। किन्तु इन सबके मूल केन्द्र आत्मा पर तो श्रद्धा तथा रुचि नहीं हुई है । प्रतीति नहीं की है । आत्मा से सम्बन्धित गुणों पर श्रद्धा सुस्थिर नहीं की है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org