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जिनवाणी-विशेषाङ्क सम्यग्दर्शन का लक्षण है। तत्त्वार्थ श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन का लक्षण है, और निश्चय सम्यक्त्व का लक्षण यही है कि- 'स्व' और 'पर' का भेद-दर्शन सम्यग्दर्शन है। इन दोनों का समीचीन-समन्वय इस प्रकार है। यहां हेय तत्त्वों को 'पर' में एवं उपादेय तत्त्वों को 'स्व' में समाविष्ट कर दिया गया है। 'स्व' अर्थात् मैं जीव हूँ। संवर एवं निर्जरा के द्वारा प्राप्त शान्ति अर्थात् निराकुलता ही मेरा स्वभाव है। 'मोक्ष' मेरे ही स्वभाव का पूर्णरूपेण विकास है, स्वाभाविक-अवस्था है, अजीव 'पर' तत्त्व है। इसके माध्यम से उत्पन्न होने वाले अजीव, आश्रव एवं बन्ध को पर भाव समझ कर छोड़ना और जीव, संवर एवं निर्जरा इन तीन तत्त्वों को स्व-भाव समझ कर ग्रहण करना, यही 'स्व-पर भेद दर्शन' निश्चय सम्यग्दर्शन है। आत्मिक-सुख-शान्ति की अनुभूति होने पर ही मनुष्य स्व-जीव को स्पष्ट रूपेण समझेगा । 'स्व' को जाने बिना वह 'पर' किसे कहेगा? मैं आत्मा हूं, शरीर इन्द्रिय आदि पर-भाव है। मैं इन सबसे पृथक् हूं। इस प्रकार ‘स्व-पर - भेद दृष्टि' का संवेदन ही सम्यक्त्व है, सम्यग्दर्शन है ।
इसी सन्दर्भ में यह स्पष्टतः ज्ञातव्य है कि स्व-पर का भेद विज्ञान होते ही सम्यग्दर्शन हो जाता है ओर तब यह आत्मा निश्चय कर सकता है कि मैं चैतन्य हूं, आत्मा हूं, मैं शरीर नहीं हूं, शरीर आदि सब भौतिक हैं, पौद्गलिक हैं, जबकि मैं अभौतिक हूं, और अपौद्गलिक हूं। पुद्गल से सर्वथा भिन्न हूं। मैं ज्ञान स्वरूप हूं। पुद्गल ज्ञान स्वरूप नहीं है । सम्यग्दर्शन मूलक सम्यग्ज्ञान से आत्मा यह सुनिश्चित कर लेता है कि अनन्त-अतीत काल में पुद्गल का एक परमाणु भी मेरा अपना नहीं हुआ तथा अनन्त भविष्य में भी वह मेरा कैसे हो सकेगा और वर्तमान में तो उसके अपने होने की आशा ही कैसे की जा सकती है। पुद्गल कदापि आत्मा का नहीं हो सकता है। और न ही आत्मा कभी भी पुद्गल हो सकता है। पुद्गल पुद्गल है, आत्मा आत्मा है। इस प्रकार स्व-पर का भेद दर्शन ही वास्तव में सम्यग्दर्शन है, इसी को सम्यक्त्व कहा जाता है।
इसी सन्दर्भ में सहज ही प्रश्न होता है कि सम्यग्दर्शन से सम्पन्न व्यक्ति के चारों ओर नाना प्रकार के पुद्गलों का जमघट लगा हुआ है। जीवन के निर्वाह में यथावश्यक पुद्गलों को वह ग्रहण करता है, उपभोग भी करता है, तथापि पुद्गलों को अपनी आत्मा से भिन्न कहने से क्या लाभ हुआ। इसका समुचित समाधान यह है कि पुद्गल के अस्तित्व को कदापि मिटाया नहीं जा सकता। विराट्-विश्व के कण-कण में अनन्त काल से पुद्गल की सत्ता रही है, और अनन्त-अनागत में भी रहेगी तथा वर्तमान में भी है। यह कल्पना करना व्यर्थ है कि पुद्गल जब विनष्ट हो जाएगा तब मेरी मुक्ति हो जाएगी। पुद्गल के अभाव की कल्पना करना सर्वथा व्यर्थ है। सम्यग्दृष्टि को इतना ही करना है कि वह पुद्गल के प्रति मन में राग एवं द्वेष, और आसक्ति का भाव न लाये। यदि राग-द्वेष का भाव मन से दूर कर लिया जाय तो पुद्गल भले ही रहे, वे सम्यग्दृष्टि का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। किन्तु पुद्गलों के प्रति राग-द्वेष तभी दूर हो सकते है जब स्व-पर भेद दृष्टि रूप सम्यग्दर्शन आ जाए। जब तक आत्मा-अनात्मा का जड़-चेतन का भेदविज्ञान नहीं होता है तब तक यथार्थ अर्थ में साधक को सम्यग्दर्शन नहीं होता है। यह लक्षण भी ज्ञातव्य है कि ज्ञेय एवं ज्ञाता इन दोनों तत्त्वों की यथारूप प्रतीति 'सम्यग्दर्शन' है। ज्ञेय से समस्त पदार्थ अथवा तत्त्वभूत पदार्थ तथा
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