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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन लक्षण दिया है, उसमें सर्वप्रथम 'तत्त्व' शब्द पर हमारी दृष्टि जाती है। 'तत्त्व' क्या है? शब्द-शास्त्र के अनुसार तत्त्व का अर्थ होता है उसका भाव, अर्थात् स्वरूप । जिस पदार्थ का जो भाव-स्वरूप है, वह उसका तत्त्व है। निष्कर्ष यह है कि जो पदार्थ जिस रूप में व्यवस्थित है, उसका वैसा होना 'तत्त्व' है। अर्थश्रद्धान शब्द का अर्थ होगा-पदार्थों का श्रद्धान । संसार में पदार्थ अनन्त हैं। किस पर श्रद्धा की जाय, किस पर न की जाय? उक्त दोषापत्ति के निवारण हेतु अर्थ श्रद्धान के पूर्व 'तत्त्व' शब्द को प्रयुक्त किया गया है। जो तत्त्वभूत पदार्थ हैं, उन पर श्रद्धा अथवा विश्वास करना वास्तव में सम्यग्दर्शन है। उक्त नवविध तत्त्वों का स्वरूप जानकर, उन पर श्रद्धान करना ही व्यवहार सम्यक्त्व है, व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
व्यवहार सम्यग्दर्शन के प्रथम लक्षण पर विचार करने के पश्चात् द्वितीय-लक्षण पर विवेचन अभीप्सित है। द्वितीय लक्षण के अनुसार -देव, गुरु और धर्म पर यथार्थ श्रद्धान करना ‘सम्यग्दर्शन' है। इसीलिए यह प्रतिपादित है कि सच्चे देव में देवत्व बुद्धि, सच्चे गुरु में गुरुत्व बुद्धि और सद्धर्म में धर्म बुद्धि का होना, सम्यक्त्व कहलाता है।" हिंसा रहित धर्म में, अठारह दोष रहित देव में, मोक्षमार्ग के प्रवचन-दाता निर्ग्रन्थ गुरु में श्रद्धा रखना 'सम्यक्त्व' है।५ अर्हन्तदेव, वीतराग प्रतिपादित धर्म, मोक्षमार्ग, सच्चे साधु पर श्रद्धान करना 'सम्यग्दर्शन' है ।१६ अर्हन्त देव से बढ़कर कोई देव नहीं है, दया के बिना कोई धर्म नहीं है, तपः परायण साधु ही सच्चे साधु हैं, इस प्रकार का दृढ़ श्रद्धान ही सम्यक्त्व का लक्षण है।१७ जो दोषों से रहित वीतराग को देव, सर्वजीव-दयापरायण धर्म को श्रेष्ठ धर्म तथा निर्ग्रन्थ साधु को गुरु मानता है, वही स्पष्टतः सम्यग्दृष्टि कहलाता है। परमार्थ आप्त, आगम एवं तपोधनी गुरु के प्रति तीन मूढ़ताओं से रहित, आठ अंग सहित एवं अष्टमद रहित श्रद्धान 'सम्यग्दर्शन' होता है। आप्त, आगम और तत्त्व का जो अति निर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यक्त्व जानना चाहिये। प्रश्न होता है कि क्या इन दोनों लक्षणों में पूर्वापर विरोध नहीं है? प्रश्न का समाधान यह है कि उक्त लक्षणों में विशेष-विभेद नहीं है, आप्त, आगम और पदार्थ या देव, गुरु एवं धर्म इन तीनों को तत्त्वार्थ समझना चाहिये। अर्थात् सप्त अथवा नव तत्त्वों में ही तत्त्वार्थ की समाप्ति न कर के तत्त्वार्थ के अन्तर्गत देव, गुरु, धर्म एवं तत्त्व को भी सम्मिलित समझ लेना चाहिये। ये सभी तत्त्वभूत पदार्थ हैं।
व्यवहार-सम्यग्दर्शन एक प्रकार का परिधान है निश्चय सम्यग्दर्शन अन्तरंग हृदय हैं, अन्तरात्मा है, अतएव सम्प्रति सम्यग्दर्शन के द्वितीय रूप निश्चय-सम्यग्दर्शन के सन्दर्भ में विचारणा कर लेना अभीष्ट है। निश्चय सम्यग्दर्शन : स्वरूप एवं लक्षण
व्यवहार-सम्यग्दर्शन अभूतार्थ अर्थात् व्यवहार नय से जीव, अजीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धान होने पर होता है। भूतार्थ नय अर्थात् निश्चय नय एकत्व को ही प्रगट करता है। अतएव निश्चय नय से नवविध तत्त्वों के साथ एकत्व प्राप्ति से आत्मानुभूति होती है, अथवा उन भूतार्थ रूप से परिज्ञात, अजीव आदि पदार्थों को विशुद्ध आत्मा से भिन्न करके सम्यक् रूप से अवलोकन करना निश्चय सम्यग्दर्शन है। आशय यही है कि आत्मानुभव सहित पदार्थों पर श्रद्धान और प्रतीति ही
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