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जिनवाणी- विशेषाङ्क
परंपरागत कौटुम्बिक गुरु और संप्रदाय की गुरु आम्नाय करने का उल्लेख किसी भी आगम में नहीं है।
(११) इस अनागमिक गुरु आम्नाय प्रवृत्ति के शिकार बन कर कितने ही साधु-साध्वी या आचार्य आदि पदवीधर अपने विकृत मानस से व्यक्तियों, गांवों, घरों को 'अपना मेरा' 'मेरे संप्रदाय के' ऐसी परिग्रह - वृत्ति से संयम को दूषित करते हैं, समाज को छिन्न-भिन्न करते हैं और अपनी अपनी गुरु आम्नाय का प्रचार करते हैं तथा इसी प्रवृत्ति से समकित के प्रचार होने का आभास करते हैं, किन्तु ऐसे एक गुरु की संकीर्ण मानसवृत्ति से समकित की प्राप्ति की जगह सही समकित का अवरोध होता है । विशाल दृष्टिकोण के बिना भोले लोग शुद्ध समकित से वंचित रह जाते हैं।
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साथ ही गुरु कहलाने की रुचि वाले व्यक्तिगत गुरु या उनकी संप्रदाय के साधु-साध्वी मेरा घर, मेरे गांव, हमारे श्रावक, हमारे घर, हमारे क्षेत्र, ऐसी परिग्रह संज्ञा के वशीभूत होकर ममत्त्व भाव के कारण 'पारिग्रहिकी क्रिया' के शिकार बनते हैं और जिसे पारिग्रहिकी क्रिया लगती है उसे छट्ठा - सातवां गुणस्थान अर्थात् भाव खाधुत्व नहीं रहता है । इस प्रकार यह समकित का रूप लेने वाली वर्तमान जैन जगत् की ‘गुरु आम्नाय' साधु-समाज में परिग्रह - भावना की पोषक बनी हुई है एवं समाज को विभक्त करने में वैमनस्य को जन्म देती है ।
पूज्य धर्मदास सम्प्रदाय के प्राचीन संत ने ६०-७० वर्ष पूर्व अपने अंदर के अनुभूत भाव निम्न पद्य में प्रगट किये हैं
है शास्त्र निराली, समुदाय की रिवाजें । मजबूत बांधते हैं, गुरु आमनाय क्यारी ॥ १ ॥
विश्वेश वीर भगवन् सुध लीजिये हमारी ॥टेर ॥ पूज्य माधोमुनि
(१२-१३) विचरण करते हुए मुनियों को गांव-नगरों में गोचरी में विविध भक्तिभाव, आदर-सम्मान व अनुकूलता के अम्बार भी मिल सकते हैं, फिर भी चर्या परीषह को जीतने वाला मुनि कहीं भी अपना घर न बनावे | किसी भी क्षेत्र या व्यक्ति में लगाव पैदा न होने दे, किन्तु जल-कमलवत् निर्लेप रहता हुआ, पक्षी द्वारा दो पंखयुक्त अपना शरीर लेकर उड़ जाने के समान निष्परिग्रही और एकाकी भाव में, अध्यात्म-तल्लीनता में रहता हुआ विचरण करे। ऐसे भाव की प्रेरणा उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २ में चर्यापरीषह संबंधी दो गाथा द्वारा की गई है। " दशवैकालिक सूत्र में दूसरी चूलिका में भी कहा है- 'गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिं पि कुज्जा' ।
आचारांगसूत्र अध्ययन २ उद्देशक ६ में कहा है- 'से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स नत्यि ममाइयं' अर्थात् वही मुनि वास्तव में सही मार्ग को जानने-देखने वाला और आचरण करने वाला है जिसको कहीं भी यह मेरा, यह मेरा, ऐसा मानस नहीं है ।
(१४-१५-१६) प्रदेशी राजा ने केशीस्वामी को, आनंद श्रावक ने भगवान महावीर स्वामी को, अम्बड के सात सौ शिष्यों ने अंबड श्रमणोपासक को धर्मगुरु धर्माचार्य के रूप में स्मरण - नमस्कार किया, ऐसा आगम में वर्णन आया है । ७ इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि इन्होंने इनकी गुरुआम्नाय की या इनकी समकित ली। इन तीनों ने
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