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जैन वाङ्मय में सम्यग्दर्शन
केवलमल लोढ़ा तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान को सम्यक दर्शन कहते हैं। यहां यथार्थ शब्द से तात्पर्य है कि जैसी तत्त्वों की व्याख्या जिनेश्वर देवों ने की है, उसको उसी रूप में समझना
और मानना सम्यक्दर्शन है। क्योंकि आचारांगसूत्र स्पष्ट घोषणा करता है कि 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेदितं' (सूत्र ५.५.१६८)। सम्यक्त्व, प्रतीति, रुचि, विश्वास, समदृष्टि, श्रद्धादि शब्द सम्यग्दर्शन के पर्यायवाची रूप से प्रयुक्त हुए हैं। सम्यग्दर्शन की व्याख्या
(क) बत्तीसवें आगम आवश्यकसूत्र में सम्यक्त्व ग्रहण की प्ररूपणा है कि (i) यावज्जीवन अरिहंत मेरे देव हैं, (ii) सुसाधु मेरे गुरु हैं, (iii) जिन प्रज्ञप्त तत्त्व (धर्म) है, ऐसी सम्यक्त्व मैंने अंगीकार की है। दूसरे शब्दो में व्यक्त करें तो सुदेव, सुगुरु, सुधर्म को जीवनपर्यन्त के लिए स्वीकारना सम्यक् दर्शन है। इन सूत्रों में सम्यक्त्व कैसे दृढ़ हो, उसका प्रतिपादन किया गया है। सम्यग्दर्शी परम अर्थ (नौ तत्त्वों) की जानकारी करे व इन तत्त्वों के ज्ञाता की सेवा करे जिससे उनके साथ हई तत्त्व-चर्चा से सम्यग्दर्शन की वृद्धि व स्थिरता हो। सम्यक्त्व से च्युत न होवे इसके लिये चेतावनी दी है कि जिन्होंने सम्यक्त्व का वमन कर दिया है या 'कुदंसणी' (मिथ्यात्वी) हैं, उनकी संगति नहीं करे और पाँच सम्यक्त्व के अतिचार (शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, परपाषंड-प्रशंसा एवं परपाषंड-परिचय) का सेवन न करे।
मिथ्यालिंगी कौन है, इसका निर्देशन उत्तराध्ययन सूत्र २३.६३ में किया है कि ३६३ कुवयणी (पाषंडी) सभी उन्मार्गी हैं। केवल जिन-प्रज्ञप्त देशनाएं ही सन्मार्ग
(ख) उपर्युक्त मूलागम उत्तराध्ययन सूत्र अ. २८/१४-१५ में नौ तत्त्वों के नाम निर्देशन के साथ यह भी प्ररूपणा है कि जो इन तत्त्वों का वास्तविक स्वरूप समझकर अन्त:करण (हृदय) से श्रद्धा करता है वह सम्यक्त्वी है। इस सम्यक्त्व की रुचि दस प्रकार से उत्पन्न होती है, उसका उल्लेख गाथा १४ में है। दस रुचियां हैं-१. निसर्ग रुचि, २. उपदेश रुचि, ३. आज्ञारुचि, ४. सूत्र रुचि, ५. बीज रुचि, ६. अभिगम रुचि, ७. विस्तार रुचि, ८. क्रिया रुचि, ९. संक्षेप रुचि और १०. धर्म रुचि। इनका वर्णन ठाणांगसूत्र स्थान १०/१०४ में भी है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति
सम्यक्दर्शन की प्राप्ति दो प्रकार-(i) निसर्ग-यानी अपने आप, बिना गुरु-उपदेश या बिना अन्य की प्रेरणा के (ii) अभिगम-गुरु उपदेश या अन्य बाह्य निमित्त से होती है। (आन्तरिक कारण दोनों में साधक का क्षयोपशम है) भगवतीसूत्र शतक ७ उद्देशक १ सूत्र १० इस तथ्य का साक्षी है कि तथारूप श्रमण निर्ग्रन्थों को शुद्धाहार के प्रतिलाभों से दाता को बोधि (सम्यक्त्व) की प्राप्ति होती है। इसकी उत्पत्ति का क्रम लब्धिसार ग्रन्थ में इस प्रकार बतलाया है। सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व साधक पाँच लब्धियां प्राप्त करता है
(१) क्षयोपशम लब्धि-इसके द्वारा साधक अप्रशस्त कर्म प्रकृतियों की
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