________________
निश्चय और व्यवहार के सन्दर्भ में सम्यग्दर्शन
म श्री रमेश मुनि शास्त्री (उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. के शिष्य) सम्यग्दर्शन के दो स्वरूप प्रचलित हैं।-१. निश्चय सम्यग्दर्शन और २. व्यवहार सम्यग्दर्शन। इन दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शन के स्वरूप एवं लक्षणों का विवेचन करते हुए विद्वान् मुनि श्री ने दोनों की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए उनमें समन्वय की स्थापना की है।-सम्पादक शाश्वतसुख का अधिष्ठान : सम्यग्दर्शन
सम्यग्दर्शन समग्र धर्मों का केन्द्रीय तत्त्व है, संयम एवं समता का मूल है, व्रतों और महावतों का आधार स्तम्भ है, अध्यात्म-साधना की आधारशिला है, मोक्ष-मार्ग का प्रथम साधन है, चारित्र-साधना के मन्दिर का प्रवेशद्वार है, ज्ञान-आराधना का स्वर्णिम-सोपान है, मुक्ति-प्राप्ति का अधिकार पत्र है, अध्यात्म-विकास का सिंह द्वार है, पूर्णता की यात्रा का परम पाथेय है, अनन्त शक्ति पर विश्वास का प्रेरणा-स्रोत है, चेतना की मलिनता-निवारण का अमोघ उपाय है, अन्तश्चेतना के जागरण का अग्रदूत है, परमात्मदशा का बीज है, जिनत्व की प्रशस्त-भूमिका है, चेतना के ऊर्ध्वारोहण का मंगलमय मार्ग है, अध्यात्म-शक्ति का मूलभूत नियन्ता है और भेदविज्ञान का प्राण तत्त्व है। किं बहुना, शाश्वत सुख का अधिष्ठान है। अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग रूप
सम्यग्दर्शन मूलतः अखण्ड है। उसका खण्डशः होना संभव नहीं है, तथापि विवक्षा के आधार पर उसका वर्गीकृत-रूप-स्वरूप प्रगट होता है और जैन-दर्शन की यह एक विलक्षण-विशेषता है कि वह प्रत्येक पदार्थ का यथार्थ अंकन करने के लिए उसे बहिरंग एवं अन्तरंग दोनों दृष्टियों से जांचता है, परखता है। उसका सूक्ष्मतम-निरीक्षण, यथार्थतः परीक्षण एवं निष्पक्षतः समीक्षण करता है। केवल बाह्य दृष्टि से वस्तुतत्त्व का लक्षण करने पर वस्तु का वास्तविक रूप अर्थात् मूल-रूप जाना नहीं जा सकता। क्योंकि वस्तु का मौलिक-स्वरूप तो उसका अन्तरंग ही होता है। यदि अन्तरंग दृष्टि से ही पदार्थ का लक्षण किया जाता है, तो वस्तु को अल्पज्ञ, छद्मस्थ मनुष्य सहसा पकड़ नहीं पाता है। उसे ज्ञात भी नहीं होता है कि कौनसी वस्तु उस लक्षण से युक्त है और कौनसी नहीं। आन्तरिक भावों का बोध प्रत्यक्षज्ञानी के अतिरिक्त किसे हो सकता है? एतदर्थ वस्तु-तत्त्व का लक्षण निश्चय एवं व्यवहार इन दोनों नयों की अपेक्षा से किया जाता है।
सम्यग्दर्शन का लक्षण करते समय भी इन्हीं दो नयों का आश्रय लिया गया है। इसलिये सम्यग्दर्शन के निश्चय सम्यग्दर्शन और व्यवहार सम्यग्दर्शन ये दो रूप प्रतिपादित कर दोनों का समीचीन रूप से समन्वय किया गया है। जिससे सम्यग्दर्शन की गम्भीरता का स्पष्टीकरण होता है और उसका हार्द भी समझ में आ जाता है। वास्तविकता यह है कि अध्यात्म-यात्री का साध्य 'मोक्ष' है और सम्यग्दर्शन रूप धर्म को उसका सशक्त-साधन कहा है। स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन एक परम प्रशस्त साधन है, और वही धर्म है। वह धर्म की मूल वस्तु है। समस्त व्रतों की जड़ है। यह भी ज्ञातव्य है कि इस धर्म का समीचीन रूपेण समाचरण केवल आत्मा से
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org