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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय- विवेचन
। इसका विशद विवेचन ऊपर किया जा चुका है 1
'तत्त्वविद् आचार्यों ने तो यहां तक कह दिया हैध्यानं दुःखनिधानमेव तपसः सन्तापमात्र फलं, स्वाध्यायोऽपि हि वन्ध्य एव कुधियां तेऽभिग्रहाः कुग्रहाः । अश्लाघ्या खलु दान- शीलतुलना तीर्थादियात्रा वृथा, सम्यक्त्वेन विहीनमन्यदपि यत् तत्सर्वमन्तर्गडु ||
यानी सम्यक्त्वविहीन साधक के ध्यान, तप, स्वाध्याय, अभिग्रह, दान, शील, तीर्थ-यात्रा आदि सभी अन्तर्गडु अर्थात् विफल हैं।
निर्वेद के महान् उद्गाता उपाध्याय विनयविजय ने शान्तसुधारस में इसी तथ्य को उजागर करते हुए लिखा है
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मिथ्यादृशामप्युपकारसारम्, सन्तोषसत्यादिगुणप्रसारम् ।
वदान्यतावैनयिकप्रकारम्,
मार्गानुसारीत्यनुमोदयामः ॥ - शान्तसुधारस, १४.५
मिथ्यादृष्टि जनों में भी प्राप्त परोपकार, सन्तोष, सत्य, औदार्य तथा विनय आदि गुणों का, जो मार्गानुसारी के रूप में अभिहित हैं, अनुमोदन करते हैं । इस प्रकार प्रमोद-भावना के अन्तर्गत यह मात्र सद्गुणों का अनुमोदन है । सम्यक् दृष्टि के बिना पारलौकिक, आध्यात्मिक आराधना इनसे किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होती ।
स्वयं श्रीमद् भिक्षुस्वामी तथा श्रीमज्जयाचार्य ने भी इस तत्त्व को कहीं-कहीं बड़े स्पष्ट रूप में स्वीकार किया है। स्वामीजी ने श्रावक धर्म विचार की ढाल (गीतिका) में लिखा है
समकित बिन सुध पालियो, अज्ञानपणे आचार ।
नवग्रैवेयक ऊंचो गयो, पिण नहीं सरी गरज लिगार ||
कोई एक जन सम्यक्त्व के बिना शुद्ध संयम का पालन कर नवग्रैवेयक स्वर्ग तक पहुंच गया किन्तु इससे उसकी जरा भी गरज नहीं सरी-जीवन का साध्य कुछ भी नहीं
सधा ।
और भी लिखा है
'नवतत्त्व ओलख्यां बिना, पहरै साधु रो वेष ।
समझ पड़े नहीं तेहने, भारी हुवै विशेष ।।'
तत्त्व को जाने बिना कोई साधु का वेश पहनकर साधु बन जाते हैं, किन्तु वे साधु का आचार और शास्त्रों के वचन समझ नहीं पाते। कर्मों से छूटना तो दूर रहा, प्रत्युत वे कर्मों से और भारी हो जाते है। क्योंकि नव तत्त्वों की पहचान के बिना सम्यक् दृष्टि प्राप्त हो ही नहीं सकती ।
एक व्यक्ति साधु के आचार का पूर्णतया पालन करता है, समस्त दोषों का वर्जन करता है, किन्तु यदि वह सम्यक्त्व रहित है तो उसका लक्ष्य सिद्ध नहीं होता |
कतिपय व्यक्ति बियावान जंगल में रहते हैं, सर्दी-गर्मी आदि के दुःख सहते है—तथाकथित घोर तप करते हैं, किन्तु यदि वे सम्यक्त्व - रहित हैं तो यह सब पूरा का
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