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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय - विवेचन
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किया है, वह प्रस्तुत विषय को और स्पष्ट करता है । पागल आदमी जो हर समय अंट-संट, अनर्गल बकता रहता है, कभी-कभी समझदारी की बातें भी कर जाता है 1 किन्तु उसका मस्तिष्क अनियंत्रित होता है। उससे विहित, व्यवस्थित, प्रमाणित रूप में समझदारी की बातें करते रहने की कभी आशा नहीं की जा सकती। यही स्थिति मिथ्यात्वी की है । जैसे एक पागल व्यक्ति मस्तिष्कीय चेतना से रहित होता है, वैसे ही मिथ्यात्वी सम्यक्त्व- चेतना से शून्य होता है । दोनों में ही अपनी-अपनी कोटि का विवेक-वैकल्य है। अतः मिथ्यात्व में आत्मकल्याणमूलक जागृति का कोई लक्षण प्रतीत नहीं होता । इसीलिए उसका समग्र पराक्रम या उद्यम कर्मबन्ध का हेतु है, विमुक्ति का नहीं ।
औपपातिकसूत्र (सूत्रसंख्या ७३-७६) में द्विद्रव्यादिसेवी, वानप्रस्थ, परिव्राजक आदि तापसों का उल्लेख है। कभी उनका बड़ा प्रसार था । अम्बड़ ( औपपातिकसूत्र ८२ - १००) नामक परिव्राजक के तो सात सौ अन्तेवासी थे । ये सब अपने-अपने ढंग से दान, शौच, तीर्थाभिषेक, व्रत, उपवास आदि विभिन्न आचार क्रम अपनाये हुए 1 किन्तु वे मिथ्यादृष्टि थे । इसलिये वे अनाराधक थे । वे जो भी करते थे, वह भगवान् की आज्ञा के अन्तर्गत कभी नहीं आता ।
स्थानाङ्ग सूत्र के तृतीय स्थान में तीन प्रकार की आराधना समुपवर्णित है - १. ज्ञानाराधना २. दर्शनाराधना और ३. चारित्राराधना |
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इन तीनों के केन्द्र में सम्यक् दर्शन विद्यमान है । दर्शनाराधना तो सम्यक् दर्शनमय है ही, ज्ञानाराधना भी सम्यक् दर्शन के बिना कदापि संभव नहीं है । जैसा कि पहले विस्तार से वर्णन किया गया है, ज्ञान वस्तुतः तभी 'ज्ञान' कहे जाने का अधिकारी बनता है, जब उसके साथ अनिवार्यतः सम्यक् दर्शन जुड़ता है । उसी प्रकार सम्यक् दर्शन के बिना चारित्राराधना- सम्यक् चारित्र की उपासना, साधना सर्वथा असंभव है ।
इस सन्दर्भ में भगवती सूत्र का आराधक चतुर्भङ्गी का प्रसङ्ग विशेष रूप से चर्चनीय है, जिसे श्रीमत् जयाचार्य ने मिथ्यात्वी की क्रिया को भगवद्- आज्ञा में सिद्ध करने हेतु भ्रम - विध्वंसन में उद्धृत किया है। आचार्य श्री जवाहरलालजी ने सद्धर्ममण्डन में अपनी दृष्टि से उसमें विसंगति दिखलाने का प्रयास किया है
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वहां प्रथम भङ्ग में उस पुरुष को लिया गया है जो शीलवान् है पर सम्यक्त्व रहित है, उपरत है-पाप से निवृत्त है, किन्तु अविज्ञातधर्मा है । उसे देशाराधक कहा गया है । (भगवती सूत्र, शतक ८, उद्देशक १०) भ्रमविध्वंसन में इसी भंग के आधार पर तपस्वी या मिथ्यात्वी देशाराधक माना गया है। (भ्रमविध्वंसन, पृष्ठ ३-४)
सबसे पहले एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यहां त्रिविध आराधना में कौन सी आराधना सधी ? सम्यक् दर्शन नहीं है, ज्ञान नहीं है इसलिये इसे दर्शनाराधना और ज्ञानाराधना तो कहा नहीं जा सकता। कहने के लिए यह कहा जा सकता है कि यह देशतः चारित्राराधना है, किन्तु जरा गहराई से विचार कीजिए 'नाणेण विणा ण हुंति चरणगुणा' जैसे आगम वाक्यों पर मताग्रहशून्य होकर चिन्तन कर क्या कोई भी
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