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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन अध्ययन, यम, नियम आदि अनुष्ठान शुद्ध है। वह भौतिक सुखेप्सा, क्रोधादि भाव-शल्य तथा कषाय आदि दोषों से कलङ्कित नहीं है। अतः वह कर्मबन्ध का हेतु नहीं होता। वह निरनुबन्ध-भव-भ्रमण रहित केवल निर्जरा के लिए होता है। सम्यक् दृष्टियों का सभी अनुष्ठान संयम तथा तपःप्रधान होता है। संयम से आस्रव का निरोध होता है तथा तप. से निर्जरा होती है।' __आचार्यशीलाङ्क ने यहां सम्यक्त्व की महिमा का आख्यान करते हुए असम्यक्दृष्टि या मिथ्यात्वी की सभी शुभ प्रवृत्तियों को केवल कर्म-बन्ध का हेतु बतलाया है। कर्म बन्ध का हेतु मोक्ष-मार्ग नहीं होता। जो मोक्ष-मार्ग नहीं होता, कार्मिक विस्तार होता है, वह भगवान् की आज्ञा में कैसे होगा? विज्ञ जन स्वयं इसे अनुभव करें, विवेक द्वारा परखें। साथ ही साथ शुद्धोपयोग की दृष्टि से भी यह सन्दर्भ बड़ा महत्वपूर्ण है। शुद्ध पराक्रम शुद्धोपयोग ही तो है। वह आत्मा का स्वोन्मुखी उद्यम है, बन्ध विवर्जित है। ___ आगमों में अनेक स्थानों पर ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं जिनसे मिथ्यात्वी द्वारा आचरित तप आदि कृत्यों का मोक्षापेक्षया वैयर्थ्य सिद्ध होता है। अतएव वे भगवदाज्ञा के बहिर्गत हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के नवम अध्ययन में देवराज इन्द्र और महामति, महात्यागी राजर्षि नमि के बीच हुए तात्त्विक वार्तालाप में राजर्षि ने वीतराग-भाषित सम्यक्त्व मूलक धर्म की उपादेयता बताते हुए देवराज को बड़े स्पष्ट शब्दो में कहा था
___ मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणं तु भुंजए।
न सो सुयक्खायधम्मस्स, कलं अग्घइ सोलसिं ।।उत्तरा. ९.४४ ___ एक ऐसा बाल-अज्ञानी-मिथ्यात्वी तापस है, जो मास-मास का तप (अनशन) करता है। पारणे के दिन केवल इतना सा लेता है, जो कुश के अग्रभाग. पर टिक सके अर्थात् वह नाम मात्र का आहार ग्रहण करता है। बाह्य दृष्ट्या कितना घोर तप है यह, किन्तु वह-वैसा करने वाला सुआख्यात-वीतराग प्ररूपित धर्म की सोलहवीं कला भी नहीं प्राप्त कर सकता। इस गाथा से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि उसका तप भगवान् की आज्ञा में नहीं है। वह मोक्षपरक साधना पथ में समाविष्ट नहीं होता।।
तत्त्वतः कथ्य यह है कि देव, गुरु, धर्म, मोक्ष, तन्मूलक सिद्धान्त, साधना इत्यादि में जो विपरीत श्रद्धा लिये होता है, तद्गत सत्य को स्वीकार नहीं करता, उसे असत्य के रूप में देखता है, वैसा व्यक्ति तप, दान, पुण्य आदि के नाम पर जो भी करे, मिथ्यादर्शन-संपृक्त होने के कारण वह जरा भी आत्मश्रेयस् के लिए उपयोगी नहीं होता। मोक्ष-पथ कैसे हो?
जैन आगमों में सैकड़ों ऐसे पाठ प्राप्त होते हैं, जिनसे सम्यक्त्व की मोक्षाराधना में, जो एक मात्र भगवदाज्ञा का विषय है, अपरिहार्य आवश्यकता सिद्ध होती है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है
नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं, दंसणे उ भइयव्वं । समत्तचरित्ताई जुगवं, पुव्वं व सम्मत्तं ॥ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुँति चरणगुणा । अगणिस्स नस्थि मोक्खो, नस्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं ।।उत्तरा. २८.२९-३०
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