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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन प्रदान किया है। आत्मकल्याणेच्छु जनों के लिये यही प्रभु की आज्ञा है। एतन्मूलक साधनाक्रम ही मोक्षोन्मुखता के कारण प्रभु की आज्ञा में है।
. सम्यक दर्शन का प्रतिपक्ष मिथ्यादर्शन या मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के पंक से प्रलिप्त या मिथ्यात्वी जो भी क्रिया करता है, वह मोक्षानुगत या मोक्षमार्ग के अनुरूप नहीं होती। अतः उसकी क्रिया भगवदाज्ञा में नहीं मानी जाती। सभी जैन आम्नायां का यह विश्वास है।
आग्रहात्मक बुद्धि सत्य के उद्घाटन और स्वीकरण में सदैव बाधक होती है। आत्मकल्याण हर मुमुक्षु का लक्ष्य है, जिसके मूल में सत्य सन्निहित है। उसकी कीमत पर साम्प्रदायिक व्यामोहवश परम्परागत मान्यता के दृढ़ीकरण में, यदि वह तथ्यपूर्ण न भी हो, सतत कटिबद्ध रहना बुद्धिमत्ता का लक्षण नहीं है। यह देव-दुर्लभ मानव-जीवन यों ही बिता देने योग्य नहीं है। सत्य, धर्म और साधना के अतिरिक्त क्या और कोई अन्त में साथ देगा?
सूयगडांग सूत्र की दो गाथाएं यहां उद्धृत की जा रही हैं, जो प्रस्तुत विषय के स्पष्टीकरण की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है
जे या 5 बुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो।
असुद्धं तेसिं परक्कंतं, सफलं होइ सव्वसो॥-सूत्रकृतांग ८.२२ जो पुरुष अबुद्ध-बोधरहति हैं-धर्म के रहस्य से अनभिज्ञ है, किन्तु जगत् में महाभाग-महत्त्वपूर्ण, आदरास्पद माने जाते हैं, वीर-शत् सैन्य के विजेता हैं, किन्तु सम्यक्दर्शन से रहित हैं-मिथ्यात्वी हैं, उनका धर्म पराक्रम-दान, तप आदि में उद्यम अशुद्ध है, सर्वथा कर्म-बन्ध का हेतु है।
जे य बुद्धा महाभागा, वीरा समत्तदंसिणो।
सुद्धं तेसिं परक्कंतं, अफलं होइ सव्यसो ॥-सूत्रकृतांग ८.२३ जो पुरुष धर्मतत्त्व, पदार्थ स्वरूप के बोध से युक्त हैं, महाभाग हैं, वीर हैं, सम्यक् दृष्टि हैं, उनका पराक्रम-धार्मिक उद्यम शुद्ध है, सर्वथा कर्मनाश के लिये-मोक्ष के लिये होता है। ___ आचारांग तथा सूयगडांग-इन दो अंगों पर आचार्य शीलांक की टीकाएं प्राप्त हैं, जो आगम निरूपित तथ्यों के उद्घाटन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उपर्युक्त दो गाथाओं का आचार्य शीलांक ने अपनी टीका में जो मार्मिक विश्लेषण किया है, उन्हीं के शब्दों में उसे यहां उद्धृत किया जा रहा है___'अन्यच्च-ये केचन 'अबुद्धाः' धर्मं प्रत्यविज्ञातपरमार्था व्याकरणशुष्कतकर्कादिपरिज्ञानेन जातावलेपाः पण्डितमानिनोऽपि परमार्थवस्तुतत्त्वानवबोधादबुद्धा इत्युक्तं, न च व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण सम्यक्त्वव्यतिरेकेण तत्त्वावबोधो भवतीति, तथा चोक्तम्
शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽपि, नैवाबुधः समधिगच्छति वस्तुतत्त्वम् । नानाप्रकाररसभावगताऽपि दर्वी,
स्वादं रसस्य सचिरादपि नैव वेत्ति ॥ यदि वाऽबुद्धा. इव बालवीर्यवन्तः तथा महान्तश्च ते भागाश्च महाभागाः ।
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