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जिनवाणी-विशेषाङ्क देखो, सम्यग्दृष्टि के मुंह से ऐसी बातें नहीं निकलती। सम्यग्दृष्टि प्रत्येक बात को सीधी लेता है और मिथ्यादृष्टि उलटी लेता है। कदाचित् उसे कोई साले की गाली दे भी दे तो वह सोचता है कि जगत् की परस्त्रियां मेरे लिए बहिन के समान हैं। इस नाते अगर यह मेरा बहिनोई बनता है तो क्या हर्ज है ! हे प्रभो ! मुझे ऐसी ही सद्बुद्धि दीजिए कि संसार की स्त्रियों को मैं बहिनों के समान ही समझता रहूं और सब का साला बन जाऊं। सच्चा मर्द वही है जो इस प्रकार सबका साला बनता है। जो ऐसा नहीं, वह सच्चा मर्द नहीं। इस प्रकार विचार कर सम्यग्दृष्टि गाली देने वाले से कहता है-भाई, धन्यवाद ! तुमने मुझे बहुत ही सुन्दर उपाधि दी है। मैं न केवल तुम्हारा, वरन् सभी का साला बनना चाहता हूं और समस्त परस्त्रियों को बहिन के रूप में मानना चाहता हूं। ___ इसके विपरीत मिथ्यात्वी एक गाली देने वाले को पचास गालियां सुनाता है और . हित की बात कहने वाले के सामने भी अकड़ता है। कहता है-तुम्हें मुझसे क्या सरोकार है? तुम कौन होते हो मुझे सिखाने वाले? तुम जैसे पचासों को मैं अपनी जेब में रखता हूं। अपनी अक्ल अपने पास रहने दो। अपनी भलाई को भी बुराई समझकर ऐसा कहने वाले को विपरीत बुद्धि समझना चाहिए। उसके पेट में जहर मौजूद है।
तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि की कषाय मन्द हो जाती है इस कारण उसके अन्तःकरण में समभाव विद्यमान रहता है।
सम्यग्दृष्टि का कोई अपराध करता है तो सम्यग्दृष्टि उसे क्षमा कर देता है। इसके विपरीत, किसी का कोई अपराध उससे बन जाये तो वह पश्चात्ताप प्रकट करता है
और क्षमायाचना कर लेता है। बिना अपराध किये ही उसे कोई दण्ड दे तो वह शान्ति के साथ उसे सहन कर लेता है और सोचता है कि दण्ड देने वाला तो निमित्त मात्र है, असल में इस दण्ड का उपादान तो मैं स्वयं हूं। मैंने ही अशुभ कर्मों का उपार्जन किया है और मैं ही उनका फल भोगने वाला हूँ। अशुभ कर्मों के उदय के अभाव में मेरा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।
आज हजारों-लाखों सम्यग्दृष्टि नरक में पड़े हुए हैं और असंख्यात मिथ्यादृष्टि भी पड़े हुए हैं। दुःख दोनों को ही होता है। नरक की भूमि ही बड़ी वेदनाकारी है। उसका स्पर्श करते ही ऐसी घोर वेदना होती है मानों हजार बिच्छुओं ने एक साथ डंक मार दिया हो। उसके लिए सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि सभी समान हैं। वह किसी का लिहाज नहीं करती। नरक में दूसरी वेदना परमाधामी असुरों के द्वारा उत्पन्न की जाती है। तीसरे नरक तक पहुंच कर यह असुर नाना प्रकार से छेदन-भेदन आदि करके नारक जीवों को दारुण दुःख देते हैं। वे सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का विचार नहीं करते। तीसरी वेदना नारक आपस में ही एक दूसरे को देते हैं। यह वेदना भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार के नारकों को होती है। तात्पर्य यह है कि दोनों तरह के नारकों को नरक में समान रूप से कष्ट पड़ते हैं। मगर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की भावना में भारी अन्तर रहता है। सम्यग्दृष्टि नारक जीव समझता है कि मैंने पूर्वजन्म में जो महान् पाप किये थे, उनका फल आज मुझे भोगना पड़ रहा है।
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