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जिनवाणी-विशेषाङ्क मनुष्य मधुर रस को कटुक अनुभव करता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व के प्रभाव से जीव सच्चे देव को कुदेव, सच्चे गुरु को गुरु और सच्चे धर्म को धर्म समझता है। साथ ही मिथ्या देव, गुरु और धर्म को समीचीन समझता है और इस कारण वह अहित के मार्ग पर ही अग्रसर होता है।
वास्तविकता यह है कि मिथ्यात्व पापों में सबसे बड़ा पाप है, शापों में सबसे बड़ा शाप है और तापों में सबसे बड़ा ताप है। वह समस्त कर्मों का जनक है। सम्यक्त्व : स्वरूप एवं महत्त्व ___ यथार्थ तत्त्व पर श्रद्धा न होकर विपरीत श्रद्धा होना मिथ्यात्व कहलाता है। मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से तथा अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से उत्पन्न होता है, जो जीव इन कर्मों का क्षय, उपशम अथवा क्षपोपशम कर डालता है, उसके मिथ्यात्व का अन्त आ जाता है। मिथ्यात्व के नष्ट होने पर सुदेव, मुगुरु और सुधर्म पर सच्ची श्रद्धा एवं प्रतीति करना सम्यक्त्व कहलाता है। शुद्ध सम्यक्त्ववान् जीव कुगति में नहीं जाते, जबकि मिथ्यात्वी जीव प्रायः घोर नरक की यातनाएं सहन करते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव मुक्ति-पथ पर विचरण करते हैं।
जो राग-द्वेष से सर्वथा मुक्त हो चुके हैं तथा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, ऐसी आत्माएं सुदेव हैं। पंच महाव्रतधारी कनक-कामिनी के त्यागी तथा जिनप्ररूपित धर्म या चारित्र का पालन करने वाले अनगार हमारे गुरु हैं और सर्वज्ञ वीतराग भगवान् द्वारा प्ररूपित दयामय धर्म ही हमारा इष्ट धर्म है। इस प्रकार की दृढ़ प्रतीति समकित कहलाती है।
जब आत्मा में सम्यक्त्व का उदय होता है तो अनेक प्रकार के सात्त्विक सद्भाव उत्पन्न हो जाते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय न रहने से आत्मा में एक प्रकार की अनिर्वचनीय शान्ति उत्पन्न होती है, जिसे प्रशमभाव कहते हैं । वस्तु स्वरूप का यथार्थ परिज्ञान हो जाने से वह जीव सांसारिक पदार्थों का उपभोग करता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता, बल्कि उदासीन वृत्ति से बर्ताव करता है। वह मोक्ष की ओर उन्मुख हो जाता है। उसका हृदय अत्यन्त मृदु बन जाता है, अतएव किसी भी दीन दुःखी जीव को देखता है तो करुणा का स्रोत प्रवाहित होने लगता है। वह आत्मा, स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप आदि भावों पर अटल विश्वास रखने के कारण परम आस्तिक होता है।
सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म पर सच्ची श्रद्धा रखने वाले ही सच्चे श्रावक हैं। श्रावक स्वप्न में भी मिथ्यात्व का सेवन नहीं करते। मोक्षार्थी जीव को मिथ्यात्व से सदा के लिए मुंह मोड़ लेना चाहिए। जीव को जब तक मिथ्यात्व के पाप से छुटकारा नहीं मिलता, तब तक वह सम्यक्त्व-रत्न की प्राप्ति नहीं कर सकता और न मोक्षमार्ग के सन्मुख ही हो सकता है।
सम्यग्दृष्टि भलीभांति जानता है कि मिथ्यात्व के कारण ही यह आत्मा, अनादि काल से, जन्म-जन्मान्तर में नाना प्रकार के कष्ट सहन कर रही है। मिथ्यात्व के हटते ही आत्मा मोक्ष का अधिकारी हो जाता है और मोक्षमार्ग पर चलने योग्य बन जाता
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