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मिथ्यात्व : जीव का परम शत्रु
xx जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म.सा. मिथ्यात्व कितना भयङ्कर है और सम्यक्त्व कितना उपकारक, इसका बोध तो प्रस्तुत प्रवचन से होता ही है, किन्तु मिथ्यात्वी एवं सम्यक्त्वी के जीवन में कितना भेद होता है, इसका शम, संवेग, निर्वेद अनुकम्पा और आस्था के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत प्रवचन में विशेष प्रकाश मिलता है । उल्लेखनीय है कि यह लेख दिवाकर दिव्य ज्योति के भाग २० एवं भाग ८ के प्रवचनों 'सम्यक्त्व की कसौटी एवं 'सम्यग्दृष्टि के लक्षण ' का सम्पादित रूप है । - सम्पादक
मिथ्यात्व की भयङ्करता
मिथ्यात्वं परमो रोगो, मिथ्यात्वं परमं तमः । मिथ्यात्वं परमः शत्रुः मिथ्यात्वं परमं विषम् ॥
अर्थात् मिथ्यात्व परम रोग है, मिथ्यात्व परम अंधकार है, मिथ्यात्व परम शत्रु है और मिथ्यात्व विष है ।
शारीरिक और मानसिक रोग अनेक हैं । कहावत प्रसिद्ध है - ' शरीरं व्याधिमन्दिरम्' अर्थात् यह शरीर नाना प्रकार की व्याधियों का घर है । मगर मिथ्यात्व उन सब में बड़ी व्याधि है । सघन मेघों से आच्छादित अमावस्या की रात्रि का अंधकार अत्यन्त गहन होता है, उसमें मनुष्य को कुछ भी दिखाई नहीं देता, किन्तु मिथ्यात्व का अन्धकार तो उससे हजारों-लाखों गुणा गहन होता है । मिथ्यात्व का अन्धकार ब अन्तरात्मा में छा जाता है तो आन्तरिक नेत्रों की ज्योति भी बुझ जाती है। उससे भी सत् पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होते । अतएव मिथ्यात्व परम तम है - संसार में सब से बड़ा अंधकार है I
अहित उत्पन्न करने वाला और हित का विघात करने वाला शत्रु कहलाता है । संसार में अनेक लोगों के अनेक शत्रु होते हैं। जिसके निमित्त से किसी का कुछ अनिष्ट हुआ कि वही उसका शत्रु बन जाता है । मगर मिथ्यात्व से बढ़कर कोई शत्रु नहीं हो सकता। बाह्य शत्रु बाहर होते हैं और उनसे सावधान रहा जा सकता है, परन्तु मिथ्यात्व शत्रु अन्तरात्मा में ही घुसा रहता है। उससे सावधान रहना कठिन है । वह किसी भी समय, बल्कि हर समय हमला करता रहता है । बाह्य शत्रु अवसर देखकर जो अनिष्ट करता है, उससे भौतिक हानि ही होती है, मगर मिथ्यात्व आत्मिक सम्पत्ति को धूल में मिला देता है । वास्तव में इससे बढ़ कर शत्रु कोई हो ही नहीं सकता । अन्य शत्रु अधिक से अधिक प्राण हरण कर सकता है, धर्म को नहीं छीन सकता, किन्तु मिथ्यात्व का जब जोर होता है तो धर्म का भी विनाश हो जाता है । इस प्रकार मिथ्यात्व परम शत्रु है।
मिथ्यात्व के वशीभूत होकर जीव विपरीत श्रद्धा वाला बन जाता है । वह असत् को सत् और सत् को असत् मानने और जानने लगता है । जैसे पित्तज्वर से ग्रस्त
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