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सम्यग्दर्शन का विवेचन
द्र पण्डित श्री प्रकाशचन्द्रजी म.सा. जैनधर्म में सम्यग्दर्शन का महत्त्व, ज्ञान और चारित्र से भी बढ़कर बताया गया है। वास्तव में सम्यग्दर्शन स्वयं गुणाकर है। सम्यग्दर्शन रूपी स्वर्ण-पात्र में रहा हुआ चारित्र रूपी अमृत ही मुक्ति रूपी अमरफल देता है। इसके बिना चारित्र की विशुद्ध क्रिया भी मुक्तिरूपी उत्तम फल नहीं दे सकती। सम्यक्त्व तथा सम्यक्त्वपूर्वक की हई देशविरति या सर्वविरति की सामान्य साधना भी आत्मा को मुक्ति के निकट ले जाती है, किन्तु सम्यक्त्व रहित की हुई उत्तम साधना भी संसार में ही रुलाती है।
सम्यक्त्व प्राप्त कर लेना सभी आत्माओं के लिए सहज नहीं है। जिन आत्माओं पर मोहनीयकर्म का महा-मल जमा हो, जिनकी विवेक-शक्ति पर मिथ्यात्व मोहनीय का प्रभाव हो और जिनकी आत्मा मोहनीयकर्म के एक कोटाकोटि सागरोपम से लगाकर सत्तर कोटाकोटि सागरोपम तक के उत्कृष्ट बन्धन में जकड़ी हो, वह सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सकती। ऐसी आत्माओं में सम्यक्त्व प्राप्त करने की योग्यता ही उत्पन्न नहीं हो सकती। जिन आत्माओं पर मोहनीय कर्म के ७० कोटाकोटि सागरोपम में से ६९ कोटाकोटि से अधिक कर्म-बन्धनों का जाल हट चुका हो और अन्तः कोटाकोटि रहा हो, उन्हीं में से कोई आत्मा सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता
यहां किसी को शंका हो सकती है कि जब 'जीव बिना सम्यक्त्व के भी ६९ कोटाकोटि सागरोपम की विशालतम स्थिति क्षय कर सकता है तो शेष रही एक कोटाकोटि से भी कम स्थिति को विनष्ट क्यों नहीं कर सकता? इस थोड़ी-सी स्थिति के लिए सम्यक्त्व की अनिवार्यता क्यों मानी गई?' ज्ञानियों का अभिप्राय है कि मिथ्यात्व अवस्था में हुई अकाम-निर्जरा से आत्यंतिक निर्जरा नहीं होती। जिस प्रकार रंगीन वस्त्र का धूप लगने या वर्षा से कुछ रंग उतर जाता है और वर्षा में भीगने से मैले वस्तु का कुछ मैल छूट जाता है, परन्तु पूरी स्वच्छता तो विधिपूर्वक क्षार आदि से धोने से ही होती है। इसी प्रकार मोहनीयकर्म के ६९ कोड़ाकोड़ी सागरोपम से अधिक की स्थिति तो अकाम निर्जरा से कट जाती है, परन्तु शेष रही अन्तःकोड़ाकोड़ी के लिए सम्यक्त्व का होना अनिवार्य है। __सम्यग्दृष्टि जीव ही मोहनीय कर्म की शेष रही अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानावरण
और संज्वलन कषाय को नष्ट कर सकता है और कर्मों के बन्ध में भी कमी कर सकता है। जिसने एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया, वह फिर कभी भी एक कोटाकोटि सागरोपम से अधिक का (या पूरे एक कोटाकोटि सागर का भी) बन्ध नहीं कर सकता, भले ही उसके सम्यक्त्व का वमन होकर मिथ्यात्व आ जाय और वह देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन रूपी अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता रहे।
एक वस्त्र के दो टुकड़े करने के बाद जब पहनने का काम पड़ा, तो वह छोटा लगा। फिर से दोनों टुकड़ों को सिलाई कर जोड़ लिया, तो उससे काम चल जाता
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