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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज ४. 'संस्था' (Institution)-'संस्था' के स्वरूप के विषय में समाजशास्त्रियों में बहुत मतभेद है । 'मैकाइवर' के अनुसार 'संस्था' एक ऐसा निश्चित संगठन है, जो किसी विशेष स्वार्थ का अथवा एक विशेष ढंग से साधारण स्वार्थों का अनुसरण करता है ।' 'बोगार्डस' के अनुसार 'संस्था' वह सामाजिक ढाँचा है जिसमें सुव्यवस्थित विधियों के द्वारा मनुष्यों की आवश्यकता-पूर्ति का सम्पादन होता है । २ 'ग्रीन' के अनुसार 'संस्था' कुछ जनरीतियों तथा रूढियों का ऐसा संगठन है, जो अनेक सामाजिक कार्य करता है।3 'कूले' के मतानुसार 'संस्था' मनुष्यों का संगठन न होकर मनुष्यों के सामाजिक सम्बन्धों का अमूर्त रूप है।४ 'समिति' साकार मनुष्यों का समूह है जबकि संस्था जनरीतियों एवं रूढियों पर
आधारित पारस्परिक सम्बन्धों का अमूर्त रूप है । उदाहरण के लिए 'धर्म' 'विवाह' 'राज्य' आदि ‘संस्थाएँ' कहलाती हैं । ५ इन संस्थानों के सहयोग से मानव समाज सामूहिक रूप से गतिशील रहता है । प्राचीन भारतीय समाज में वर्णाश्रम व्यवस्था का स्वरूप भी आधुनिक समाजशास्त्रीय संस्था के अनुरूप ही है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से 'संस्था' कई प्रकार की हो सकती है—जैसे, राजनैतिक संस्था, धार्मिक संस्था, आर्थिक संस्था, विवाह संस्था आदि ।
___५. 'संस्कृति'-'सोरोकिन' के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का मूलाधार ही 'संस्कृति' है । 'संस्कृति' की परिभाषा करते हुए उनका कथन है कि दो या दो से अधिक व्यक्तियों की चेतन अथवा अचेतन प्रतिक्रियाओं का समग्रीकरण अथवा प्रस्फुटीकरण 'संस्कृति' कहलाता है। दूसरे शब्दों में समाज के चेतन व्यवहारों से प्रतिक्रिया के रूप में आविर्भूत धर्म, दर्शन, साहित्य, कला परस्पर सम्बद्ध होकर किसी भी देश की संस्कृति बन जाती हैं। 'संस्कृति' में मुख्यतः विचारात्मकता (Ideational) तथा ऐन्द्रिक (Sensate) के तत्त्व पाए जाते हैं । विचारात्मक संस्कृति के अन्तर्गत ज्ञान, कला, धर्म, दर्शन आदि अमूर्त तथा अतीन्द्रिय तत्त्व आते हैं । इसके
१. रामनाथ शर्मा, समाजशास्त्र के सिद्धान्त, भाग २, पृ० २६८ २. Bogardus, E.S. Sociology, p. 478 ३. Green, A. W., Sociology, p. 79 ४. Cole, Social Theory, p. 45 ५. Das, An Introduction, p. 33 ६. रामनाथ शर्मा, समाजशास्त्र के सिद्धान्त, भाग-२, पृ० ३०५-५३ ७. Sorokin, Social and Cultural Dynamics, New York, 1937,
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