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भूमिका
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दलसुख मालवणिया का आगम युग का जैनदर्शन प्रथम बार 1966 में सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा से प्रकाशित हुआ, जो आज अप्राप्त है, जिसका द्वितीय संस्करण 1990 में प्राकृत भारती, जयपुर से प्रकाशित हुआ । यह लेखक की 'न्यायावतारवार्तिक वृत्ति', जो 1949 में प्रकाशित हुई उसकी प्रस्तावना का एक अंश था । इस ग्रन्थ में लेखक ने आगमोत्तरकालीन, जैन साहित्य में उपलब्ध दार्शनिक चर्चा का मूल आगम में प्रमाणित करने का प्रयास किया, साथ ही किस प्रकार आगम युग का जैन दर्शन आगमोत्तरकालीन या मध्य दार्शनिक युग में विकसित हुआ, ऐसा विवेचन करने का सार्थक प्रयास किया है ।
लेखक का एक अन्य ग्रन्थ जैनदर्शन का आदिकाल नाम से 'लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद' से 1980 में प्रकाशित हुआ। इसमें लेखक ने आगम के प्राचीनतम प्रथम स्तर के आधार से जैनदर्शन का प्रारम्भिक रूप कैसा था, यह बताने का प्रयत्न किया है। इस संक्षिप्त ग्रन्थ के दो व्याख्यानों में प्रथम में जैनागम की चर्चा की है तथा द्वितीय व्याख्यान में विशेष रूप से अति प्राचीन माने जाने वाले आचारांग और सूत्रकृतांग के आधार पर जैनदर्शन की प्राचीनतम भूमिका क्या थी और अन्त में उस मूल भूमिका को आधार बनाकर किस प्रकार समग्र जैन दर्शन का उत्तरोत्तर विकास हुआ, इसकी संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
राकेश मुनि का भारतीय दर्शन के प्रमुख वाद यह ग्रन्थ आर्दश साहित्य संघ, चूरू से 1988 में प्रकाशित हुआ । यह ग्रन्थ भी भारतीय दर्शन के विभिन्न मतवादों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करता है । लेखक ने इस ग्रन्थ में समग्र भारतीय दर्शन के 45 मतों के साथ जैन आगमों में प्रयुक्त विभिन्न मतों की अ संक्षिप्त चर्चा सानुवाद मूल टिप्पण के साथ की है।
शोध अध्याय
शोध-प्रबन्ध में आठ अध्यायों का समावेश है, जिसमें अध्याय विभाजन से पूर्व भूमिका रखी गई है। शोध-प्रबन्ध में समाहित आठ अध्याय इस प्रकार हैं
1. महावीरकालीन सामाजिक और राजनैतिक स्थिति,
2. पञ्चभूतवाद,
3. एकात्मवाद,