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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
भारतीय दर्शन का केन्द्र बिन्दु है। जैन आगमों के अनुसार आत्मा का स्वरूप विविध विशेषताओं से युक्त है। जैन आगमानुसार आत्मा उपयोगमय, परिणामीनित्य, अमूर्त, कर्ता, साक्षात् भोक्ता, स्वदेह परिमाण, असंख्यात प्रदेशी, पौद्गलिक अदृष्टवान आदि विशेषताओं से युक्त है।
भगवान् महावीर के समकालीन आत्मवाद के सम्बन्ध में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत दृष्टिगत होते हैं। 600 ई.पू. में भगवान् महावीर एवं गौतम बुद्ध के अतिरिक्त पांच धर्मनायकों (अजित केशकम्बल, पकुधकच्चायन, पूरणकश्यप, संजयवेलट्ठिपुत्त एवं मक्खलि गोशाल) का उल्लेख मिलता है। ये उस युग के साधु-सम्मत यशस्वी तीर्थंकर थे। इनकी आत्मवाद संबंधित अवधारणा शोध के विभिन्न अध्यायों से सम्बन्धित होने के कारण उन अध्यायों में ही इनकी मान्यताओं की विवेचना की गई है।
अगले बिन्दु में एकात्मवाद का विवेचन जैनागमों के परिप्रेक्ष्य में किया गया तथा अध्याय के अन्त में जैन दृष्टि से एकात्मवाद की समीक्षा की गई। जैन आगमों में इस मत की समीक्षा में कहा गया है कि एकात्मवाद की कल्पना युक्तिरहित है, क्योंकि यह अनुभव से सिद्ध है कि सावध अनुष्ठान करने में जो आसक्त है, वे ही पाप-कर्म करके स्वयं नरकादि दुःखों को भोगते हैं, दूसरे नहीं। अतः आत्मा एक नहीं है, बल्कि अनेक है। जैन दृष्टि से एक आत्मा अथवा एक चैतन्य सत्ता वास्तविक नहीं है और न वह दृश्य जगत् का उपादान भी है। अनन्त आत्माएँ हैं और प्रत्येक आत्मा इसलिए स्वतंत्र है कि उसका उपादान कोई दूसरा नहीं है। चेतना व्यक्तिगत है और प्रत्येक आत्मा का चैतन्य अपना-अपना होता है। एकात्मवाद के सन्दर्भ में जैन आगमों में अनेकान्त दृष्टि से समाधान प्रस्तुत किया गया है वहाँ आत्मा की एकता और अनेकता दोनों प्रतिपादित है। जैसा कि स्थानांग और समवायांग में कहा गया है कि आत्मा एक है, वहीं भगवती में उसे अनेक भी कहा गया है।
चतुर्थ अध्याय बौद्ध दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त क्षणिकवाद पर आधारित है। भगवान बुद्ध का जन्म उन परिस्थितियों में हुआ जबकि औपनिषदिक आत्मविद्या के सम्बन्ध में विभिन्न जन मनगढंत कल्पना कर रहे थे। बुद्ध का आत्म तत्त्व का सिद्धान्त अनित्यवाद या क्षणिकवाद सिद्धान्त पर आधारित है। क्षणिकवाद का अर्थ है किसी भी वस्तु का अस्तित्व सनातन नहीं है। किसी वस्तु