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भूमिका आकाश) में विश्वास करते हैं, उन मतवादियों के प्रामाणिक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं। दूसरे बिन्दु पंचभूतवाद एवं चारभूत (चार्वाक) सिद्धान्त के अन्तर्गत देखा गया कि आगमों में पांचभूतों के अतिरिक्त भी चारभूतों का कहीं उल्लेख हुआ है अथवा नहीं। जहां तक मैं जान पाई, उसके आधार पर आगमों में सर्वत्र पांचभूतों का अस्तित्व प्रमाणित हुआ। महावीर और बुद्ध के समकालीन छः तीर्थंकरों में पकुध कच्चायन के सातकाय सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है, जिसमें चार काय तो पृथ्वी, अप, तेज तथा वायु हैं। साथ ही उन्होंने आकाश तत्त्व का अस्तित्व भी किसी दृष्टि से स्वीकार किया है। इस दृष्टि से उसे भी पंचभूतवादी की कोटि में गिना जा सकता है। जैन दार्शनिक साहित्य में सर्वत्र चार भूतों का ही उल्लेख आया है। अगले बिन्दु में चारभूतवाद सिद्धान्त के बारे में संक्षिप्त विमर्श इस दृष्टि से किया गया कि जैन परम्परा में यद्यपि स्वयं आप्त प्रमाण ग्रन्थों में पंचभूतों का उल्लेख है, तथापि चार्वाक मान्य चारभूतों का उल्लेख जैनाचार्य हरिभद्र सूरि आदि करते हैं, पंचभूतों का नहीं। निश्चित ही चार्वाक दर्शन का किसी समय अपना महत्त्वपूर्ण स्थान था।
इसके बाद महावीर के समकालीन एक प्रमुख आत्मवाद अजितकेशकम्बल के अनित्य आत्मवाद अथवा तज्जीव-तच्छरीरवाद का जैन आगमों और बौद्ध त्रिपिटकों के परिप्रेक्ष्य में विवेचन किया गया।
अगले बिन्द जैनेतर परम्परा में उपनिषदों, रामायण, महाभारत, गीता तथा अर्थशास्त्र, कामसूत्र आदि में भौतिकवादी मान्यताओं को दर्शाया गया।
अध्याय के अन्त में पंचभूतवाद की जैन दृष्टि से समीक्षा प्रस्तुत की गई। जैन दृष्टि से इस सिद्धान्त को मानना बन्धन का कारण है, क्योंकि वर्तमान जीवन तक ही देह नहीं है। व्यक्ति हर जन्म में पिछले जन्म के संस्कार लिए हुए आता है। उपरोक्त मान्यताओं के अनुसार पुण्य-पाप, सुकृत-दुष्कृत तथा परलोक का भी कोई महत्त्व नहीं है, और पंचभूतों से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है। इस सिद्धान्त को मानने पर व्यक्ति की किसी प्रकार की तप-साधना का कोई मूल्य नहीं रहेगा, न ही व्यक्ति के पुण्यकार्यों (लौकिक और लोकोत्तर) का कोई महत्त्व रहेगा।
शोध के तृतीय अध्याय एकात्मवाद के अन्तर्गत सर्वप्रथम जैन आगम ग्रन्थों के अनुसार आत्मा का स्वरूप सिद्ध किया गया। आत्मा की अवधारणा